________________ आहत वनस्पति से कार्य किया गया, वह तत्काल वृद्धि को रोकने के लिए यथेष्ट थी और जब इस रुखाई से उसका पुनरुन्नयन हुआ तभी वह पुनः सक्रिय हुआ / अब ऐसा किया गया कि पौधे को जहाँ तक सम्भव हुआ, बड़े आहिस्ते से युक्त किया गया और उसे अभिलेख लेने के पहले दो घंटे का विश्राम दिया गया। इस सावधानी के बाद सन्तोषजनक परिणाम पाने में कठिनाई नहीं हुई। ___शलाका की चुभन और छुरी का आघात आगे मैंने शलाका-चुभनों के प्रभावों का परीक्षण किया। इनकी उत्तेजनाएँ घर्षण या रूक्ष स्पर्श की उत्तेजना से अधिक थों। वृद्धि, स्वाभाविक वृद्धि से एक चौथाई हो गयी और उसी अनुपात से पुनरुन्नयन ने भी दीर्घतर समय लिया। पूरे एक घंटे के बाद भी स्वाभाविक गति के केवल 3 अंश की वृद्धि हुई। छुरी द्वारा एक लम्बा चीरा बनाकर और भी तीव्र आघात पहुँचाया गया ; इसने स्वाभाविक गति को घटाकर 1 अंश कर दिया। क्षतिज चीरे का व्रण-प्रभाव और भी तीव्र हुआ। ऐसे चीरों से वृद्धि यथेष्ट समय के लिए रुक गयी। अधिक संवेदनशील प्रादर्शों में इसके द्वारा स्पष्टत: आक्षेपी संकुचन उत्पन्न हुआ। पिछड़ी हुई वृद्धि पर पिटाई का प्रभाव शारीरिक दण्ड स्पष्ट ही वृद्धि का सहायक नहीं है, इस सत्य पर विद्यालयों के अध्यापकों को गम्भीरतापूर्वक विचार करना चाहिये / किन्तु सत्य मुझे यह मानने को प्रेरित करता है कि इसका भी अपना उपयोग हो सकता है क्योंकि मेरे परीक्षणों से ज्ञात होता है कि जब सक्रिय, बढ़ते हुए प्रादर्शों में आघात से वृद्धि रुकती है, वहीं अन्यों में, जिनमें वृद्धि की गति स्वाभाविक से निम्न होती है, उद्दीपना गति को पुनः सक्रिय करके दर को बढ़ा देती है। संभवतः इससे कतिपय भारतीय कृषकों में प्रचलित उस प्रथा का स्पष्टीकरण प्राप्त हो जाता है जिसमें फसल की प्रारम्भिक अवस्था में उसकी अच्छी पिटाई की जाती है। कुछ पौधे वृद्धि में बहुत पिछड़े रहते हैं, जिसका कारण अभी अस्पष्ट है। इनकी शाखाएँ और पत्तियाँ अस्वस्थ दीखती हैं। तब इन कष्टदायी अंगों को काट देना ही पौधे के लिए गुणकारी होता है। तीव्र आघात द्वारा रुकी हुई वृद्धि पुनः सक्रिय हो जाती है। स्पन्दित पत्तियों पर व्रण का प्रभाव - परिभ्रामी शालपर्णी की पत्तियाँ, जैसा पहले ही बताया जा चुका है, स्वतः स्पन्दन प्रदर्शित करती हैं। पत्तियों से भरा लघु पर्णवृन्त जब मूल पौधे से अलग कर