________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक* 81 अर्थापत्तिपरिच्छेद्यं परोक्षं ज्ञानमादृताः। सर्वं ये तेऽप्यनेनोक्ता स्वाज्ञातासिद्धहेतवः॥३९॥ प्रत्यक्षं तु फलज्ञानमात्मानं वा स्वसंविदम् / प्राङ्मयाकरणज्ञानं व्यर्थं तेषां निवेदितं // 40 // प्रधानपरिणामत्वादचेतनमितीरितम् / ज्ञानं यैस्ते कथं न स्युरज्ञातासिद्धहेतवः // 41 // प्रतिज्ञार्थैकदेशस्तु स्वरूपासिद्ध एव नः / शब्दो नाशी विनाशित्वादित्यादि साध्यसन्निभः // 42 // लिए स्वयं वही ज्ञान तो समर्थ नहीं है। अन्य ज्ञानों की कल्पना करने पर नैयायिकों के यहाँ अनवस्था दोष आता है। इसमें कोई अन्तर नहीं है।।३८।। ___ अर्थापत्ति द्वारा जानने योग्य परोक्ष ज्ञान का जो आदर स्वीकार करते हैं वे मीमांसक भी इस उक्त कथन से दोषयुक्तका प्रतिपादन करने वाले कह दिये गये हैं। उन नैयायिक और मीमांसकों के द्वारा ज्ञान को जानने के लिए दिये गये हेतु तो स्वयं उनके ही द्वारा ज्ञात नहीं हैं। किसी प्रतिवादी को कैसे ज्ञात होंगे? अतः परिच्छेद्यत्व या ज्ञातता आदिक हेतु अज्ञातासिद्ध हेत्वाभास हैं॥३९॥ जिन प्रभाकर मीमांसकों ने फलज्ञान तो प्रत्यक्ष माना है और प्रमिति के करण हो रहे प्रमाण ज्ञान को परोक्ष माना है, अथवा जिन भट्टमीमांसकों के यहाँ प्रमितिकर्ता आत्मा का तो स्वसंवेदन प्रत्यक्ष हो जाना इष्ट किया है और प्रमाण ज्ञान को परोक्ष माना है. उन मीमांसकों के यहाँ प्रमाके पर्व में करणज्ञान का ही निवेदन किया गया है। क्योंकि परोक्ष करणज्ञान के बिना भी अर्थ का प्रत्यक्ष हो जाना प्रत्यक्ष हो रहे आत्मा या फलज्ञान से बन जाता है। अतः परोक्ष भी करणज्ञान की मध्य में कल्पना करोगे तो आत्मा या फलज्ञान को प्रत्यक्ष करने में भी पृथक् करणज्ञान मानना पड़ेगा अतः परोक्ष ज्ञान की सिद्धि करने में दिये गये हेतु भी अज्ञातासिद्ध हेत्वाभास हैं।॥४०॥ कपिलवादी आत्मा का स्वभाव चैतन्य मानते हैं और बुद्धि को जड़ प्रकृति की पर्याय होने से अचेतन मानते हैं। अर्थात् - ज्ञान अचेतन है, सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण की साम्य अवस्थारूप प्रकृति का परिणाम होने से, जैसे कि घट। इस प्रकार जिन कपिलों ने प्रधान परिणामित्व, उत्पत्तिमत्व आदि हेतु दिये हैं वे हेतु अज्ञातासिद्ध हेत्वाभास क्यों नहीं होते हैं? जो हेतु प्रतिज्ञार्थ एकदेश होता है वह स्वरूपासिद्ध है, अर्थात् पक्ष और साध्य के वचन को प्रतिज्ञा कहते हैं। निगमन से पूर्वकाल तक प्रतिज्ञा असिद्ध रहती है। यदि कोई असिद्ध प्रतिज्ञा के विषयभूत अर्थ के एकदेशपक्ष या साध्य को ही हेतु बना लेवे तो वह हेतु प्रतिज्ञार्थ एकदेश असिद्ध हो जाता है। .. यह दोष तो हम स्याद्वादियों के यहाँ स्वरूपासिद्ध ही कहा जाता है। किन्तु यह कोई नियत हेत्वाभास नहीं है। शब्द (पक्ष) नाश होने वाला है (साध्य), क्योंकि विनाश शील है (हेतु)। ज्ञान (पक्ष) प्रमाण (साध्य) है प्रमाण होने से (हेतु) इत्यादि स्थलों पर साध्यों को हेतु बना लेने पर तो साध्यसम हेत्वाभास है जोकि स्वरूपासिद्ध में ही गर्भित हो जाते हैं। जबकि शब्द में नाशीपना सिद्ध नहीं है तो विनाशित्वपना हेतु शब्द में स्वयं नहीं रहा। अत: विनाशित्व हेतु स्वरूपासिद्ध हेत्वाभास है। यों तो भागासिद्ध, व्याप्यत्वासिद्ध, व्यर्थविशेषणासिद्ध आदि भेद इन्हीं भेदों में गर्भित हो जाते हैं। यहाँ तक असिद्ध हेत्वाभास का कथन किया है॥४२॥ अब विरुद्धहेत्वाभास का कथन करते हैं -