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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 82 यस्साध्यविपरीतार्थो व्यभिचारी सुनिश्चितः। स विरुद्धोऽवबोद्धव्यस्तथैवेष्टविघातकृत् // 43 // सत्त्वादिः क्षणिकत्वादौ यथा स्याद्वादविद्विषां। अनेकान्तात्मकत्वस्य नियमात्तेन साधनात् // 44 // सामर्थ्य चक्षुरादीनां संहतत्वं प्रसाधयेत् / परस्य परिणामित्वं तथेतीष्टविघातकृत् // 45 // अनुस्यूतमनीषादिसामान्यादीनि साधयेत् / तेषां द्रव्यविवर्त्तत्वमेवमिष्टविघातकृत् // 46 // विरुद्धान्न च भिन्नोऽसौ स्वयमिष्टाद्विपर्यये। सामर्थ्यस्याविशेषेण भेदवादिप्रसंगतः॥४७॥ विवादाध्यासितं धीमद्धेतुकं कृतकत्वतः। यथा शकटमित्यादि विरुद्धो तेन दर्शितः॥४८॥ यथा हि बुद्धिमत्पूर्वं जगदेतत्प्रसाधयेत् / तथा बुद्धिमतो हेतोरनेकत्वशरीरिताम् // 49 // स्वशरीरस्य कर्त्तात्मा नाशरीरोऽस्ति सर्वथा / कार्मणेन शरीरेणानादिसम्बन्धसिद्धितः // 50 // जो हेतु या साध्य से विपरीत अर्थ के साथ व्याप्ति को रखता है, उसको विरुद्धहेत्वाभास समझना चाहिए, और विरुद्ध के साथ व्याप्त होने के कारण वह हेतु इष्ट साध्य का विघात करने वाला है, जैसे कि स्याद्वाद का विशेष द्वेष करने वाले बौद्धों के द्वारा क्षणिकपन, असाधारणपन आदि को साधने में प्रयुक्त किये गये सत्त्व प्रमेयत्व आदिक हेतु विरुद्ध हैं। क्योंकि उन सत्त्व आदि हेतुओं के द्वारा नियम से नित्य अनित्यरूप या सामान्यविशेषरूप अनेक धर्मात्मकपने की सिद्धि होती है। अत: अभीष्ट साध्य हो रहे सर्वथा क्षणिकपन के विपरीत कथंचित् क्षणिकपन के साथ व्याप्ति रखने वाला होने से सत्त्वहेतु विरुद्ध है॥४३-४४॥ चक्षु, रसना आदि इन्द्रियों का संहतपना हेतु उनकी सामर्थ्य को सिद्ध कर देता है। इस प्रकार कपिलादि के द्वारा मानी गयी ग्यारह इन्द्रियाँ जो कार्य कर रही हैं वह आत्मा की सामर्थ्य से कर रही हैं। किन्तु ऐसी दशा में दूसरे सांख्यों की आत्मा का परिणामीपन भी सिद्ध हो जायेगा। किन्तु सांख्यों ने आत्मा को कूटस्थ माना है। अतः अनुमान करने पर वह हेतु सांख्यों के इष्ट कूटस्थपन का विघात कर देता है। तथा अन्वयरूप से ओत प्रोत बुद्धि आदि के सामान्य चेतनपन आदि को भी वह संहतपना हेतु साध देता है। वे बुद्धि, सुख आदिक स्वभाव आत्मद्रव्य के ही पर्याय हैं। अतः सांख्यों के इष्ट सिद्धांत का विघात करने वाला स्वयं सांख्य के इष्ट साध्य से विपर्यय को साधने में अभिमुख हो रहा (वह) हेतु विरुद्धहेत्वाभास से भिन्न नहीं है। जिस पदार्थ की सामर्थ्य का परिवर्तन होता रहता है. वह पदार्थ परिणामी है। सामर्थ्य और सामर्थ्यवान में कोई विशेषता नहीं है। यदि शक्ति और शक्तिमान में भेद माना जायेगा तो आप सांख्यों को भेदवादी नैयायिक या वैशेषिक हो जाने का प्रसंग आयेगा अतः चक्षु आदि की नित्य सामर्थ्य को साधने वाला संहतपना हेतु विरुद्धहेत्वाभास है॥४५-४६-४७॥ विवाद में प्राप्त हो रहे पर्वत, शरीर आदि पदार्थ भी (पक्ष) बुद्धिमान चेतन को हेतु मानकर उत्पन्न होते हैं (साध्य), अपनी उत्पत्ति में दूसरों के व्यापार की अपेक्षा रखने वाले कृतक भाव होने से (हेतु), जैसे कि गाड़ी (अन्वय दृष्टांत) आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार के उस नैयायिक या वैशेषिक द्वारा दिये गये अन्य भी कार्यत्व, अचेतनोपादानत्व, आदि हेतु विरुद्ध हेत्वाभास हैं, क्योंकि उक्त हेतु अपने अभीष्ट बुद्धिमान
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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