________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 80 हेतोर्यस्याश्रयो न स्यात् आश्रयासिद्ध एव सः। स्वसाध्येनाविनाभावाभावादगमको मतः // 32 // प्रत्यक्षादेः प्रमाणत्वे संवादित्वादयो यथा / शून्योपप्लवशब्दाद्यद्वैतवादावलम्बिनां // 33 // सन्देहविषयः सर्वः संदिग्धासिद्ध उच्यते / यथागमप्रमाणत्वे रुद्रोक्तत्वादिरास्थितः // 34 // सन्नप्यज्ञायमानोऽत्राज्ञातासिद्धो विभाव्यते / सौगतादेर्यथा सर्वः सत्त्वादिस्वेष्टसाधने // 35 // न निर्विकल्पकाध्यक्षादस्तिहेतोर्विनिश्शयः / तत्पृष्ठजाद्विकल्पाच्चावस्तुगोचरतः क्व सः // 36 // अनुमानान्तराद्धेतुनिश्चये चानवस्थितिः। परापरानुमानानां पूर्वपूर्वत्रवृत्तितः॥३७॥ ज्ञानं ज्ञानान्तराध्यक्षं वदतोनेन दर्शितः। सर्वो हेतुरविज्ञातोऽनवस्थानाविशेषतः॥३८॥ जिस अनुमान के हेतु का आधार ही सिद्ध नहीं है, वह हेतु आश्रयासिद्ध हेत्वाभास है। अपने साध्य के साथ अविनाभाव का अभाव होने से यह हेतु अपने साध्य का अगमक माना गया है। अर्थात् वह हेतु साध्य का गमक नहीं है। जैसे कि शून्य, तत्त्वोपप्लव, शब्द अद्वैत, ब्रह्मअद्वैत आदि के पक्ष परिग्रह का अवलम्ब करने वाले विद्वानों के यहाँ प्रत्यक्ष, अनुमान आदि को प्रमाणपना साधने पर संवादीपन, प्रवृत्तिजनकपन, आदि हेतु आश्रयासिद्ध हो जाते हैं // 32-33 / / जो हेतु संदेह के विषय हैं वे सभी संदिग्धासिद्ध हेत्वाभास कहे जाते हैं। जैसे कि आगम को प्रमाणपना साधने में दिये गये रुद्र के द्वारा व बुद्ध के द्वारा कथित हेतु संदिग्धासिद्धपन रूप व्यवस्थित हैं॥३४॥ विद्यमान हेतु भी प्रतिवादी के द्वारा यदि ज्ञात नहीं हो तो वह हेतु अज्ञानासिद्ध हेत्वाभास कहा जाता है। जैसे कि बौद्ध आदि विद्वानों के द्वारा अपने अभीष्ट क्षणिकत्व आदि साध्य को साधने में प्रयुक्त किये गये सत्त्व, परिच्छेद्यत्व, आदिक सभी हेतु अज्ञातासिद्ध हेत्वाभास हैं। क्योंकि निर्विकल्पक प्रत्यक्ष से हेतु का विशेषरूप से निश्चय नहीं होता है। अर्थात् बौद्धों के यहाँ प्रत्यक्षज्ञान निश्चय ज्ञप्ति को नहीं करा सकने वाला माना गया है। तथा उस निर्विकल्पक ज्ञान के पश्चात् उत्पन्न हुए विकल्पं ज्ञान से भी हेतु का निश्चय नहीं हो सकता है; विकल्पकज्ञान वस्तुभूत अर्थ को विषय नहीं कर पाता है। ऐसी दशा में बौद्ध प्रतिवादियों को नैयायिकों के सत्त्व आदि हेतुओं का वह निश्चय कहाँ हुआ। यदि अन्य अनुमानों से हेतु का निश्चय होना माना जाएगा तो अनवस्था दोष आयेगा। क्योंकि व्याप्तिग्रहण के लिए अथवा अनुमान में पड़े हुए हेतुओं का निश्चय करने के लिए उत्तरोत्तर होने वाले अनेक अनुमानों की पूर्व पूर्व के हेतुओं को जानने में धारावाहिनी प्रवृत्ति होने से अनवस्थादोष आता है। अत: जिस हेतु को प्रतिवादी नहीं जान सकता है, वह अज्ञातासिद्ध हेत्वाभास है // 35-36-37 // नैयायिक कहते हैं कि आत्मा में समवाय सम्बन्ध से उत्पन्न हुए अव्यवहित उत्तर कालवर्ती ज्ञान के द्वारा पूर्वक्षणवर्ती अर्थज्ञान को जान लिया जाता है। आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार पूर्वज्ञान का अन्यज्ञान के द्वारा प्रत्यक्ष हो जाना कहने वाले नैयायिक का हेतु भी अज्ञातासिद्ध है। यह इस उक्त कथन से दिखला दिया गया है। अर्थात्-पक्ष में पड़े हुए ज्ञान को जानने के लिए और हेतु स्वरूप ज्ञान प्रमेय को जानने के