________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक*७९ सत्त्वादिः सर्वथा साध्ये शब्दभंगुरतादिके। स्याद्वादिनः कथंचिन्न सर्वथैकान्तवादिनः // 27 // शब्दाद्विनश्वराद्धेतुसाध्ये चाऽकृतकादयः। हेतवोऽसिद्धतां यान्ति बौद्धादेः प्रतिवादिनः // 28 // जैनस्य सर्वथैकान्तधूमवत्त्वादयोऽग्निषु। साध्येषु हेतवोऽसिद्धा पर्वतादौ तथाग्नितः॥२९॥ शब्दादौ चाक्षुषत्वादिरुभयासिद्ध इष्यते / निःशेषोऽपि यथा शून्यब्रह्माद्वैतप्रवादिनोः // 30 // वाद्यसिद्धौ प्रसिद्धौ च तत्र साध्यप्रसाधने ॥समर्थनविहीनः स्यादसिद्धः प्रतिवादिनः॥३१॥ साध्य के साथ अविनाभाव रखते हुए हेतु का पक्ष में रहना ही स्वरूप है; जो कि अभावरूपत्व, अविचार्यमाणत्व, प्रतिभासमानत्व हेतुओं में नहीं घटित होता है। तत्त्वोपप्लववादियों द्वारा तत्त्वों के विचार के उत्तर काल में च्युत हो जाने को साधने के लिए प्रयुक्त किये गये सभी हेतु स्वरूपासिद्ध हैं। अर्थात् विचार करने पर निर्दोष कारकों के समुदाय करके उत्पत्ति हो जाने से, बाधारहितपने से, प्रवृत्ति सामर्थ्य से अथवा अन्य प्रकारों से, प्रमाण तत्त्व व्यवस्थित नहीं हो पाता है। प्रमाण के बिना प्रमेय तत्त्वों की व्यवस्था नहीं। अत: तत्त्वोपप्लव सिद्धांत व्यवस्थित है। यह उपप्लववादियों का अविचार्यमाणत्व हेतु प्रमाण, प्रमेय आदि तत्त्वों में विद्यमान नहीं है। या विचार्यमाणत्व हेतु तत्त्वोपप्लव में घटित नहीं होता है। अत: स्वरूपासिद्ध हेत्वाभास है // 26 // बौद्धों के द्वारा शब्द में सर्वथा क्षणभंगुरपना, अणुपना, असाधारणपना आदि के साध्य करने पर दिये गये सत्त्व, कृतकत्व आदि हेतु स्वरूपासिद्ध हैं। सर्वथा क्षणिकपन, अणुपन, आदि के एकान्त पक्ष का कथन करने वाले बौद्धों के वे हेतु असद्धेतु हैं। कथंचित् क्षणिकपन आदि को साध्य करने के लिये दिये गये स्याद्वादियों के यहाँ सत्त्व आदि हेतु स्वरूपासिद्ध हेत्वाभास नहीं हैं, किन्तु समीचीन हेतु हैं॥२७॥ . बौद्ध, नैयायिक आदि प्रतिवादियों के यहाँ हेतु द्वारा शब्द का क्षणभंगुरपना साध्य करने में बोले गये अकृतकपना, प्रत्यभिज्ञायमानपन आदि हेतु असिद्धपने को प्राप्त हो जाते हैं // 28 // पर्वत, महानस आदि पक्षों में अग्नि को साध्य करने के लिए सर्वथा एकान्त रूप से धूम सहितत्व आदिक हेतु जैनों के यहाँ असिद्ध हेत्वाभास हो जाते हैं। क्योंकि पर्वत सभी अवयवों में एकान्त रूप से धूम वाला नहीं है। अत: जैनों के प्रति कहा गया सर्वथा धूमवत्व हेतुस्वरूपासिद्ध हेत्वाभास है तथा पर्वत में अग्निहेतु से ही अग्नि को साध्य करने पर स्वरूपासिद्ध हेत्वाभास है। साध्यसम होने से हेतु का अविनाभावी स्वकीयरूप असिद्ध हो रहा है। जब अग्नि नामक साध्य असिद्ध है तो उसका पक्ष में रहना भी असिद्ध है॥२९॥ . शब्द, रस आदि पक्ष में अनित्यपन को साध्य करने के लिए दिये गये चक्षुइन्द्रिय द्वारा ग्राह्य होना या नासिका इन्द्रिय करके विषय हो जाना इत्यादि हेतु वादी, प्रतिवादी दोनों के यहाँ असिद्ध हेत्वाभास माने गये हैं। जैसे कि शून्यवादी और ब्रह्माद्वैतवादी दोनों वादी प्रतिवादियों के यहाँ सभी हेतु दोनों की अपेक्षा से असिद्ध हैं।॥३०॥ साध्य को साधने में प्रसिद्ध हो जाने पर भी यदि हेतुप्रयोक्ता वादी के द्वारा जिस हेतु की सिद्धि नहीं हुई है तो समर्थन से विरहित वह हेतु प्रतिवादी विद्वान् के यहाँ असिद्ध हेत्वाभास समझा जायेगा। अत: वादियों को उचित है कि प्रतिवादी के सन्मुख अपने इष्ट हेतु का समर्थन करें॥३१॥