________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 4 प्रस्तुत चतुर्थखण्ड में 21 वें सूत्र से अन्तिम 33 वें सूत्र तक का विषय वर्णित है। अवधिज्ञान और मनः पर्ययज्ञान का विस्तार में कथन करते हुए विद्यानन्दाचार्यदेव ने केवलज्ञान-सर्वज्ञता की सुसंगत व्याख्या की है और नास्तिकों व मीमांसकों की सभी शंकाओं का निरसन किया है। अन्तिम सूत्र में वस्तु की सिद्धि करने के लिए नयों का सुसंगत विवेचन कर एकान्तवादियों के मतों का खण्डन किया है। सूत्र में सात नयों का उल्लेख आया है परन्तु आचार्य विद्यानन्द ने नयों के अनेक भेद किये हैं जो इन सप्त में गर्भित हो जाते हैं जैसे पुद्गल के सारे भेद परमाणु और स्कन्ध में गर्भित हो जाते हैं। ये नय शब्दनय, अर्थनय और ज्ञाननय के भेद से तीन प्रकार के हैं। जो नय जिस अंश का वाचक है वह शब्दनय है, वाच्य अंश अर्थ नय है और उस कथन से अनेक धर्मात्मक वस्तु की जो प्रतीति है वह ज्ञाननय है। इसके अनन्तर आचार्यदेव ने 'तत्त्वार्थाधिगम भेदः' के अन्तर्गत 470 श्लोकों में जाति, छल, निग्रह, सभ्य, सभासद आदि का कथन किया है। स्वार्थ और परार्थ के भेद से अधिगम दो प्रकार का हैं। मतिज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान स्वार्थाधिगम है। श्रुतज्ञान स्वार्थ भी है और परार्थ भी। ज्ञान रूप अधिगम स्व के लिए उपयोगी है और वचन रूप अधिगम श्रोताओं के लिए उपयोगी है। 'तत्त्व' का विशद कथन करके आचार्य विद्यानन्द ने भव्य जीवों का महाउपकार किया है। ग्रन्थ के सम्पादन का दुरूह कार्य डॉ. चेतनप्रकाश जी पाटनी, जोधपुर ने किया है। चेतन जी नि:स्वार्थ सेवाभावी हैं और जिनवाणी की सेवा में समर्पित हैं। उनको मेरा आशीर्वाद है कि वे अन्त में दिगम्बर मुद्रा धारण कर जिनगुणसम्पत्ति को प्राप्त करें। यहाँ पर बहुत समय तक सम्यग्ज्ञान का प्रचार-प्रसार करते रहें। ___ मेरे सभी कार्यों में सहयोग देने वाली आर्यिका गौरवमती (संघ को गौरवान्वित करने वाले नाम की धारक) के परिणामों की विशुद्धि की वृद्धि हो। उन्हें निर्दोष चारित्र पालने की शक्ति प्राप्त हो। वे दीर्घकाल तक भव्यों को सन्मार्ग पर लगायें और अन्त में समाधिपूर्वक प्राणों का विसर्जन करें-यही मेरी कामना भावना और आशीर्वाद है। 'ग्रन्थ के प्रकाशन में अर्थसहयोगी श्रीमान् घेवरचन्द जी पाटनी के सुपुत्र श्री पन्नालाल जी तथा उनकी पत्नी श्रीमती सरोज देवी को शुभाशीर्वाद है कि उनके जीवन में संयम की ज्योति जगे; वे अपने धन का सत्कार्यों में उपयोग करें तथा सच्चे देवशास्त्रगुरु के प्रति उनकी दृढ़ आस्था बनी रहे। - गणिनी आर्यिका सुपार्श्वमती