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________________ 卐 दो शब्द // तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकार में विद्यानन्दाचार्य ने जैन दर्शन के तत्त्वों का तलस्पर्शी सूक्ष्म विवेचन किया है। उसके पठन, मनन और चिन्तन से तत्त्वों के स्वरूप की जानकारी हृदय को जो आनन्द प्रदान करती है, वह अलौकिक है। इसके प्रकरणों का अध्ययन कर चित्त आनन्द से गद्गद हो जाता है। यह निश्चित है कि तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकार उमा स्वामी आचार्य विरचित तत्त्वार्थसूत्र के गहन गम्भीर तत्त्वों का विविध दृष्टिकोण से दर्शन कराने वाला विशाल दर्पण है। तत्त्वार्थसूत्र के प्रमेयों का इतना सूक्ष्म और विस्तृत विवेचन करने वाला अन्य ग्रन्थ नहीं है। सर्वप्रथम इस ग्रन्थ में मोक्षोपाय के सम्बन्ध में अत्यन्त गवेषणा के साथ विचार किया गया है। मुमुक्षु प्राणी का ध्येय है-संसार-भ्रमण से छुटकारा पाना। मोक्ष की प्राप्ति की कारणभूत क्रियाओं वा मानसिक प्रणतियों का दिग्दर्शन महर्षि विद्यानन्द स्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र के प्रथम अध्याय के प्रथम सूत्र सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः की विशिष्ट व्याख्या करके विशदार्थ का कथन किया है। ग्रन्थ के प्रथम खण्ड में मात्र पहले सूत्र का ही विषय विवेचित हुआ है। रत्नत्रय के बिना मुक्तिश्री वश में नहीं हो सकती है। रत्नत्रय की प्राप्ति से ही यह आत्मा मुक्तिरमा का वरण कर सकती है। इस तत्त्व का दर्शन हम आचार्यश्री विद्यानन्दजी के विवेचन में देखकर गद्गद हो जाते हैं। . . ग्रन्थ के दूसरे खण्ड में त.सूत्र के प्रथम अध्याय के दूसरे से आठवें सूत्र तक का विवेचन है। इसमें * सम्यग्दर्शन का स्वरूप, भेद, अधिगमोपाय, तत्त्वों का स्वरूप और भेद, तत्त्वज्ञान के साधक निक्षेपादि, निर्देशादि पदार्थ विज्ञान, सत्संख्याक्षेत्रादिक-तत्त्वज्ञान के साधनों की विस्तारपूर्वक व्याख्या है। इस व्याख्या में सम्यग्दर्शन से सम्बन्धित सर्वांगीण विस्तृत विवेचन है। ऐसा गहन विश्लेषण अन्यत्र नहीं मिलता। नौवें सूत्र से बीसवें सूत्र तक का विवेचन-विश्लेषण ग्रन्थ के तीसरे खण्ड में है। सम्यग्ज्ञान का स्वरूप, सम्यग्ज्ञान के भेद, मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का विवेचन इस खण्ड का विषय है। ज्ञान (सामान्य) सर्वजीवों में पाया जाता है। अनन्तानन्त जीवों में एक भी जीव ज्ञानहीन नहीं है क्योंकि ज्ञान के अभाव में जीव का अस्तित्व ही नहीं रहता परन्तु जैसे कड़वी तूम्बी के संयोग से मधुर दूध भी कटु बन जाता है वैसे ही मिथ्यादर्शन के संयोग से ज्ञान भी मिथ्या बन जाता है। जब तक सम्यग्दर्शन नहीं होता तब तक ज्ञान सम्यग् नहीं कहलाता। सम्यग्ज्ञान के बिना चारित्र भी सम्यक् नहीं होता और सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र की एकता के बिना आत्मा कर्मबन्ध से रहित होकर मुक्ति को प्राप्त नहीं कर सकता। ज्ञान पाँच प्रकार का है जो परोक्ष और प्रत्यक्ष रूप में है। तार्किक विद्यानन्द आचार्य ने अकाट्य युक्तियों के द्वारा इनका तर्कपूर्ण विवेचन किया है जो आश्चर्यजनक है।
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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