________________ प्रस्तुति // __पूज्य गणिनी आर्यिका 105 श्री सुपार्श्वमती माताजी कृत मूलानुगामी हिन्दी अनुवाद सहित तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालङ्कार का प्रस्तुत चतुर्थ खण्ड स्वाध्यायी पाठकों के कर-कमलों में सौंपते हुए हमें हार्दिक प्रसन्नता है। जैन समाज की दोनों परम्पराओं - दिगम्बर और श्वेताम्बर - में 'तत्त्वार्थ सूत्र' ग्रन्थ का महत्त्वपूर्ण स्थान है। रचयिता पूज्य उमास्वामी आचार्य ने इसमें 'गागर में सागर' उक्ति को चरितार्थ किया है। महर्षि विद्यानन्द स्वामी ने इस परमागम के गूढ़ विषयों को अपनी गम्भीर शैली में सरल बना कर संस्कृत गद्य पद्य में तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालङ्कार के रूप में अभिव्यक्त कर तत्त्वजिज्ञासुओं का महदुपकार किया है। - पूज्य माताजी ने अतिविस्तार एवं स्वतंत्र विवेचन से बच कर ‘अलंकार' का यथासम्भव मूलानुगामी सरस शब्दानुवाद-भावानुवाद प्रस्तुत किया है। प्रथम खण्ड में तत्त्वार्थसूत्र के प्रथम अध्याय के प्रथम सूत्र की संस्कृत व्याख्या का अनुवाद हुआ था। द्वितीय खण्ड में दूसरे सूत्र से आठवें सूत्र तक के विषयों का गम्भीर विवेचन है। तृतीय खण्ड में नौवें सूत्र से 20 वें सूत्र तक यानी तृतीय आह्निक पर्यन्त सूत्रों का विशद विवेचन है। प्रस्तुत चतुर्थ खण्ड में प्रथम अध्याय के २१वें सूत्र से अन्तिम ३३वें सूत्र तक के प्रमेयों का गम्भीर प्रतिपादन है। ग्रन्थकार ने अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान के स्वरूप और भेद के सम्बन्ध में प्रतिभापूर्ण विवेचन कर नयों के सम्बन्ध में गहन एवं विशद प्रतिपादन किया है। अन्त में 'तत्त्वार्थाधिगमभेदः' शीर्षक से आचार्यश्री विद्यानन्द जी ने जो प्रकरण निबद्ध किया है वह विद्वानों के उपयोग की सामग्री है। इस प्रकरण में आचार्यश्री के ज्ञानकौशल का सम्पूर्ण वैभव चरम पर दिखाई देता है। आपकी मेधा, प्रतिभा और धारणाशक्ति को कोटि-कोटि नमन। ___सूत्र 21 - चार निकाय के सभी देवों और सम्पूर्ण नारकियों के भव को ही कारण मान कर भवप्रत्यय अवधिशान हो जाता है। सम्यग्दर्शन की सन्निधि में ही यह अवधिज्ञान है अन्यथा विभङ्गज्ञान है। संयम के अभाव में इनको गुणप्रत्यय अवधिज्ञान नहीं होता क्योंकि देव और नारकियों के सदा अप्रत्याख्यानावरण कर्म का उदय बना रहता है। बहिरंग कारण (भव) एक समान होने पर भी अन्तरंग क्षयोपशम की जाति का विशेष भेद होने से भिन्न-भिन्न देवों में और भिन्न-भिन्न नारकियों में अनेक प्रकार का देशावधिज्ञान होजाता है। सूत्र 22 - क्षयोपशम को निमित्त पाकर शेष यानी कुछ मनुष्य, तिर्यंचों में गणप्रत्यय अवधिज्ञान होता है। इसके छह प्रकार के विकल्प हैं - अनुगामी, अननुगामी, वर्द्धमान, हीयमान, अवस्थित और अनवस्थित। प्रतिपात और अप्रतिपात इन दो भेदों का इन्हीं छह भेदों में अन्तर्भाव कर दिया जाता है। यहाँ अवधिज्ञान का प्रकरण पूर्ण होता है। _____सूत्र 23 - मनःपर्यय ज्ञान दो भेद वाला है ऋजुमति और विपुलमति। मनःपर्यय का प्रधान कारण क्षयोपशमविशिष्ट आत्मा है, दूसरे का या अपना मन तो अवलम्ब मात्र है। ऋजुमति मन:पर्यय सात - आठ योजन दर तक के पदार्थों का विशद प्रत्यक्ष कर लेता है और विपलमति तो चतरस्र मनुष्यलोक में स्थित हो रहे पदार्थों को प्रत्यक्ष जान लेता है। द्रव्य की अपेक्षा मन:पर्ययज्ञानी कार्मण द्रव्य के अनन्तवें भाग को जानता है। - सूत्र 24 - मन:पर्ययज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम होने पर आत्मा की जो प्रसन्नता है, वह विशुद्धि मोहनीयकर्म का उद्रेक नहीं होने के कारण संयमशिखर से पतन नहीं होना अप्रतिपात है। इन दो धर्मों से ऋजुमति