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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 6 और विपुलमति में ज्ञान का विशेष है। ऋजुमति की विशुद्धता से विपुलमति की विशुद्धि बढ़ी हुई है। विपुलमति गुणश्रेणियों में उत्तरोत्तर चढ़ता ही चला जाता है किन्तु ऋजुमति का गुणश्रेणी से अधोगुणस्थान में पतन हो जाता है. उपशम श्रेणी से गिरना अनिवार्य है। श्रेणियों में उपयोगात्मक तो श्रतज्ञान वर्त रहा है। एकाग्र किये गये अनेक श्रुतज्ञानों का समुदाय ध्यान है। अत: मोक्षोपयोगी तो श्रुतज्ञान है। फिर भी इन ज्ञानों-अवधि, मन:पर्यय के सद्भाव का निषेध नहीं किया जा सकता है। सूत्र 25 - विशुद्धि, ज्ञेयाधिकरण, स्वामी और विषय की अपेक्षा अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान में अन्तर है। विशुद्धि में मन:पर्यय अवधि से अधिक विशुद्धि वाला है। क्षेत्र की अपेक्षा अवधि ही मन:पर्यय से प्रधान है। देशावधि का ही क्षेत्र लोक है। परमावधि और सर्वावधि तो असंख्यात लोकों में भी यदि रूपी पदार्थ विद्यमान हों तो उनको भी जान सकती हैं। स्वामी की अपेक्षा मनःपर्यय का स्वामी विशेष है। मनःपर्यय के विषय सूक्ष्म हैं। संख्या में अवधिज्ञान के विषय अत्यधिक हैं। सूत्र 26 - जीवादि छहों द्रव्यों में तथा इन द्रव्यों की कतिपय पर्यायों में मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का विषय नियत है। केवल पर्यायों अथवा केवल द्रव्यों को ही विषय करने वाले दोनों ज्ञान नहीं हैं। ये दोनों अन्तरंग और बहिरंग अर्थों को जानते हैं। यहाँ आचार्यश्री ने बौद्धों के विज्ञानाद्वैत का प्रत्याख्यान कर अनेकान्त को सिद्ध किया है। श्रुतज्ञान अनेकान्तस्वरूप वस्तु का अच्छा प्रकाशक है और प्रमाण है। द्रव्य और पर्याय दोनों वास्तविक पदार्थ हैं। विशिष्ट रूप से ज्ञानावरण का विनाश नहीं होने के कारण अनन्त पर्यायों को मति और श्रुत नहीं जान सकते हैं। फिर भी जीवों में लघुकीट से लेकर प्रकाण्ड पण्डितों तक में इन दोनों ज्ञानों का ही वर्तमान में विस्तार है। सूत्र 27 - अवधिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम अनुसार रूपी द्रव्य और उनकी कतिपय पर्यायों को अवधिज्ञान जान सकता है। अमूर्तद्रव्य और अनन्त पर्यायों को नहीं जान पाता है। __ सूत्र 28 - अनन्त परमाणुवाले कार्माणद्रव्य के अनन्तवें भाग को सर्वावधिज्ञान जान लेता है, उसके भी अनन्तवें भाग स्वरूप छोटे पुद्गलस्कन्ध को द्रव्य की अपेक्षा मन:पर्ययज्ञान जान लेता है। इस प्रकार स्व पर मन में स्थित हो रहे मनुष्यलोक में विद्यमान सूक्ष्म स्कन्ध तक छोटे-बड़े रूपी पदार्थों को और उनकी कतिपय पर्यायों को मनःपर्ययज्ञान प्रत्यक्ष कर लेता है। सूत्र 29 - सम्पूर्ण द्रव्य और उनकी सम्पूर्ण पर्यायें केवलज्ञान का विषय हैं। केवल उपयोग में आ रहे या संसार और मोक्षतत्त्व के ज्ञान में उपयोगी थोड़े से पदार्थों को जान लेने मात्र से सर्वज्ञ नहीं हो सकता है। हेय और उपादेय कतिपय तत्त्वों को जान लेने से भी सर्वज्ञपना इष्ट नहीं है। ज्ञान का स्वभाव सम्पूर्ण पदार्थों को जानना है। यहाँ आचार्यश्री ने नास्तिकों और मीमांसकों के कुतर्कों का खण्डन कर सर्वज्ञता की सिद्धि की है। यह ज्ञान इन्द्रियों की सहायता की अपेक्षा नहीं रखता और क्रम से होने वाला भी नहीं है। सूत्र 30 - एक आत्मा में एक ही समय में एक को आदि लेकर भाज्यस्वरूप चार ज्ञान तक हो सकते हैं। अर्थात् आत्मा की ज्ञानहीन रहने की कोई अवस्था नहीं है। चाहे विग्रह गति में हो अथवा सूक्ष्म निगोदिया के शरीर में हो उसके कोई-न-कोई एक ज्ञान तो अवश्य होगा। तथा एक समय में चार ज्ञानों से अधिक लब्धिस्वरूप ज्ञान नहीं हो सकते हैं। एक साथ पाँच ज्ञान कैसे भी नहीं हो सकते हैं। छद्मस्थ जीवों के एक समय में दो उपयोग नहीं होते हैं, इस पर आचार्यश्री ने अच्छा विचार किया है। क्षायोपशमिक ज्ञान क्रम से ही होते हैं। यहाँ बौद्धों की युक्तियों से ही जैन सिद्धान्त को पुष्ट किया गया है। सूत्र 31 - मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान ये विपरीत भी हो जाते हैं। आत्मा के सम्यग्दर्शन गुण का विभाव परिणमन हो जाने पर इन तीनों ज्ञानों का विपर्ययपना सिद्ध होता है। आचार्यश्री ने इस तथ्य को दृष्टान्तों से पुष्ट किया है। कूटस्थ आत्मा का निराकरण कर उसे परिणमनशील सिद्ध किया है। संसारस्थ अनन्तानन्त जीव
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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