________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक*७४ मुक्ते च जीवे सति तदसत्त्ववचनं विपर्ययः / जीवे पुद्गले धर्मेऽधर्मे नभसि काले च सति तदसत्त्ववचनं / तत्र पुण्यासवे पापास्रवे च पुण्यबन्धे पापबन्धे च देशसंवरे सर्वसंवरे च यथाकालं निर्जरायामौपक्रमिकनिर्जरायां च आर्हन्त्यमोक्षे सिद्धत्वमोक्षे च सति तदसत्त्ववचनं कस्यचिद्विपर्ययस्तत्सत्त्वस्य पुरस्तात् प्रमाणत: साधनात्। एवं तदा भेदेषु प्रमाणसिद्धेषु तदसत्सु तदसत्त्ववचनं विपर्ययो बहुधावबोद्धव्यः परीक्षाक्षमधिषणैरित्यलं विचारेण॥ पररूपादितोशेषे वस्तुन्यसति सर्वथा। सत्त्ववादः समाम्नातः पराहार्यो विपर्ययः॥१६॥ पररूपद्रव्यक्षेत्रकालतः सर्ववस्त्वसत्तत्र काय॑तः सत्त्ववचनमाहार्यो विपर्ययः / सत्त्वैकान्तावलम्बनात्कस्यचित्प्रत्येतव्यः। प्रमाणतस्तथा सर्वस्यासत्त्वसिद्धेः देशतोऽसतोऽसति सत्त्वविपर्ययमुपदर्शयति उन अजीव आदि पदार्थों म विशेषरूप से पुण्यासव, पापासव, पुण्यबंध, पापबंध एवं एकदेशसंवर और सर्वदेशसंवर तथा यथायोग्य अपने नियतकाल में होने वाली निर्जरा और भविष्य में उदय आने वाले कर्मों को बलात्कार से वर्तमान उपक्रम में लाकर की गयी निर्जरा आदि तत्त्वों के होने पर भी एवं तेरहवें, चौदहवें गुणस्थान में तीर्थंकरप्रकृति की उदय अवस्था में जीवनमुक्त नामक अर्हन्तपनास्वरूप मोक्षतत्त्व और अष्ट कर्मों से सर्वथा रहित सिद्धपनास्वरूप परममोक्ष तत्त्व के प्रमाणों से सिद्ध होने पर भी उन पुण्यास्रव आदिकों का असत्त्व कथन करते रहना किसी एक चार्वाकवादी का विपर्यय ज्ञान है। मिथ्याज्ञान के अनुसार ही ऐसे तत्त्व विपरीत रूप से कथन किये जा सकते हैं। इन तत्त्वों की सत्ता का कथन पूर्व में कर दिया है। इसी प्रकार उन जीव आदि के भेद-प्रभेदरूप अनेक तत्त्वों के प्रमाणों से सिद्ध हो जाने पर भी तथा उनका सद्भाव हो जाने पर पुन: मिथ्यात्व वश उनका असत्त्वकथन करना आदि बहुत प्रकार के विपर्ययज्ञान समझ लेने चाहिए। जिनकी बद्धि तत्त्व और तत्त्वाभासों की परीक्षा करने में समर्थ है वे संक्षेप में समझ जाते हैं, विस्तार कथन से बस करो। इस प्रकरण में मिथ्याज्ञान के अवान्तर असंख्यभेदों को कहाँ तक गिनाया जाय? अतः विपर्ययपन के विचार से इतने कथन पर्याप्त हैं। इस प्रकार स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा पदार्थों का सत्त्व होने पर भी सत्त्व ना होना मानना विपर्ययज्ञान है। पररूप यानी परकीय भाव, द्रव्य, क्षेत्र आदि से सम्पूर्ण पदार्थों के असद्भाव होने पर उनका सर्वथा सद्भाव मानना भी दूसरा आहार्य्य विपर्यय ऋषिआम्नाय से माना हुआ चला आ रहा है॥१६॥ पररूप द्रव्य, क्षेत्र, काल भावों की अपेक्षा से सम्पूर्ण वस्तुएँ असत् है। घट के देश, देशांशगुण और गुणांशों की अपेक्षा पट विद्यमान नहीं है। आत्मा के स्वचतुष्टय की अपेक्षा से घट पदार्थ असत् है। फिर भी वहाँ परिपूर्णरूप से सत्त्व का कथन करना दूसरा आहार्य विपर्ययज्ञान है 'सर्वं सत्' सम्पूर्ण पदार्थों की सर्वत्र सत्ता के एकान्त पक्ष का अवलम्बन लेने से किसी एक ब्रह्माद्वैतवादी या सदेकान्तवादी के विपर्ययज्ञान समझ लेना चाहिए क्योंकि प्रमाण ज्ञानों से उस प्रकार सम्पर्ण पदार्थों का सर्वत्र नहीं विद्यमानपना सिद्ध है। परकीय चतुष्टय से सम्पूर्ण वस्तुओं के असत् होने पर भी परिपूर्ण रूप से सत्त्व कथन करने वाले आहार्य ज्ञान को कह चुके हैं। अब देश से असत् पदार्थ का अविद्यमान पदार्थ में विद्यमानपन का कथन करने वाले विपर्यय ज्ञान को दिखलाते हैं -