________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक*७३ तत्त्वान्यत्वाभ्यामवाच्यत्ववादालम्बनाद्वा तत्र विपर्ययः। सति ध्रौव्ये तदसत्त्वकथनमुत्पादव्ययमात्रांगीकरणात्केषांचिद्विपर्ययः कथंचित्सर्वस्य नित्यत्वसाधनात् / उत्पादव्यययोश्च सतोस्तदसत्त्वाभिनिवेश: शाश्वतैकान्ताश्रयणादन्येषां विपर्ययः। सर्वस्य कथंचिदुत्पादव्ययात्मनः साधनादेवं प्रतिवस्तुसत्त्वेऽसत्त्ववचनं विपर्ययः प्रपंचतो बुध्यतां / जीवे सति तदसत्त्ववचनं चार्वाकस्य विपर्ययस्तत्सत्त्वस्य प्रमाणत: साधनात्। अजीवे तदसत्त्ववचनं ब्रह्मवादिनो विपर्ययः / आस्रवे तदसत्त्ववचनं च बौद्धचार्वाकस्यैव / संवरे निर्जरायां मोक्षे च तदसत्त्ववचनं याज्ञिकस्य विपर्ययः। पूर्वमेव जीववदजीवादीनां प्रमाणतः प्ररूपणात्। विशेषतः संसारिणि सन्तान और सन्तानियों का तत्पना और अन्यपना धर्म अवाच्य है। वस्तु का कथंचित् शब्द द्वारा वाच्यपना सिद्ध हो जाने पर भी वहाँ तत्त्व अन्यत्व द्वारा अवाच्यपने के सिद्धांतवाद का आलम्बन करके अवक्तव्य का कथन करना विपर्ययज्ञान है। तथा संपूर्ण पदार्थों का कथंचित् ध्रुवपना होने पर भी केवल उत्पाद और व्यय को स्वीकार कर उस ध्रुवपने का असत्त्व कहना किन्हीं का मिथ्याज्ञान है, क्योंकि कथंचित् (द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से) सम्पूर्ण पदार्थों का नित्यपना सिद्ध किया गया है। पदार्थों की उत्पत्ति और विनाश के होने पर भी जो सर्वथा नित्य एकान्त का आश्रय कर लेने से उन उत्पाद और व्यय के असद्भाव का आग्रह करते हैं - यह सांख्यों का मिथ्याज्ञान है। क्योंकि सम्पूर्ण पदार्थों के पर्यायों की अपेक्षा से कथंचित् उत्पाद, व्ययात्मक स्वभाव की सिद्धि कर दी गयी है। इसी प्रकार अन्य भी प्रत्येक वस्तु के या उनके प्रतीत सिद्ध धर्मों के सद्भाव होने पर भी असत्त्व कह देना मिथ्याज्ञान है। इस प्रकार कुश्रुतज्ञानरूप विपर्यय को विस्तार से समझ लेना चाहिए। ज्ञान, सुख आदि गुणों के साथ तन्मय जीव पदार्थ के सत्त्व होने पर फिर उस जीव का असद्भाव कहना चार्वाक के यहाँ विपर्ययज्ञान है। क्योंकि उस जीव की सत्ता प्रमाणों से सिद्ध हो गयी है तथा घट आदि अजीव पदार्थों का सद्भाव होने पर भी उन अजीव पदार्थों का असत्त्व कहना ब्रह्मवादियों की बुद्धि में विपर्यय है। आस्रव सत्त्व के होने पर भी उसका अस्तित्व नहीं मानना बौद्ध और चार्वाक का विपरीत ज्ञान है। इसी प्रकार संवर, निर्जरा और मोक्ष तत्त्व के होने पर भी उनका असत्त्व निरूपण करना, यज्ञ को चाहने वाले मीमांसकों का विपर्यय ज्ञान है। क्योंकि पूर्व प्रकरणों में ही जीवतत्त्व के समान अजीव, आस्रव, आदिकों का प्रमाणों से निरूपण किया जा चुका है। सामान्य रूप से जीव तत्त्व को नहीं मानने पर चार्वाक का विपर्यय ज्ञान है। किन्तु जीव के भेद, प्रभेदरूप से संसारी जीवों या मुक्त जीवों के विद्यमान होने पर भी उन संसारी जीवों का या मुक्त जीवों का असत्त्व कहना एकान्तवादियों का विपर्यय है। अर्थात् मस्करी मुक्त जीव का मोक्ष से संसार में पुनः आगमन मानते हैं। कोई वादी मुक्त जीवों को संसारी जीवों से पृथक् नहीं मानते हैं। अद्वैतवादी तो नाना संसारी जीवों को ही स्वीकार नहीं करते हैं। "ब्रह्मैव सत्यमखिलं नहि किंचिदस्ति'। इसी प्रकार जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन विशेष द्रव्यों के होने पर पुनः उनका असत्त्व कहना विपर्यय ज्ञान है।