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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 72 सति तद्वदसत्त्ववचनं विज्ञानांशप्रकल्पनाद्विपर्ययः / परमार्थतो बहिरन्तश्च वस्तूनां सादृश्ये सति तदसत्त्ववचनं सर्ववैसदृश्यावलम्बनेन तथागतस्यैव विपर्ययः / सादृश्यप्रत्यभिज्ञानस्याबाधितस्य प्रमाणत्वसाधनेन सादृश्यस्य साधनात् सत्यपि च कथंचिद्विशिष्टसादृश्ये तदसत्त्ववचनं। सर्वथा सादृश्यावलम्बनात् सादृश्यैकान्तवादिनो विपर्ययः / एकत्वप्रत्यभिज्ञानस्याबाधितस्य प्रमाणत्वसाधनात्तत्सत्त्वसिद्धेः पर्याये च सति तदसत्त्ववचनं द्रव्यमात्रास्थानादपरस्य विपर्ययः। भेदज्ञानाद्यबाधितात्तत्सत्त्वसाधनात्। द्रव्यपर्यायात्मनि वस्तुनि सति तदसत्त्वाभिधानं परस्परभिन्नद्रव्यपर्यायवादाश्रयणादन्येषां तस्य प्रमाणतो व्यवस्थापनात् / का सहारा लेने से ब्रह्मवादी के विपर्यय होता है। तथा शब्दाद्वैत का आश्रय लेने से वैयाकरण के विपर्यय हो जाता है जिससे कि वे विद्यमान ग्राह्यग्राहकभाव आदि का निषेध कर रहे हैं, यहसमझ लेना चाहिए। उनके उस ज्ञान को विपर्ययपना तो ग्राह्यग्राहकभाव आदि की प्रतीतियों से सिद्धि हो जाने के कारण निर्णीत है। भिन्न-भिन्न बहिरंग अर्थों के विद्यमान होने पर भी उन एकान्तवादियों के समान बौद्धों के यहाँ भी विज्ञान के परमाणुस्वरूप क्षणिक अंशों की ही कल्पना कर लेने से उन बहिरंग अर्थों के असत्त्व का कथन करना और परमार्थरूप से बहिरंग अन्तरंग वस्तुओं का सादृश्य होते हुए भी सबके विसदृशपने का सहारा लेकर उस सादृश्य को असत्त्व कहना विपर्यय प्रसिद्ध है, क्योंकि बाधारहित सादृश्य प्रत्यभिज्ञान को प्रमाणपने से वस्तुभूत सादृश्य की सिद्धि हो चुकी है। इस एकान्त के विपरीत दूसरा एकान्त है कि सम्पूर्ण . वस्तुओं में कथंचित् विशिष्ट पदार्थों की ही अपेक्षा के सादृश्य के होने पर अथवा पदार्थों में कथंचित् वैसादृश्य होने पर सर्वथा सादृश्य पक्ष का सहारा लेकर उस वैसादृश्य का असत्त्व कहना यह सादृश्य को ही एकान्त से कहना विपर्यय है। तथा द्रव्य की पहिले पीछे समयों में होने वाली क्रमभावी पर्याय अथवा द्रव्य के सहभावी गुणों में द्रव्य की अपेक्षा एकपना होते हुए भी सदृशपने का अभिमान करना विपर्यय है। क्योकि बाधाओं से रहित एकत्व प्रत्यभिज्ञान कर उनका एकपना सिद्ध होता है। अतः एक द्रव्य में या उसकी गुण और पर्यायों में उस एकपने की सत्ता प्रमाण सिद्ध है। अनादि से अनन्तकाल तक स्थित रहने वाले नित्यद्रव्य के सद्भूत होने पर भी केवल पर्याय के अवस्थान से उस द्रव्य का असत्त्व कहना किसी बौद्ध का विपर्ययज्ञान है। क्योंकि प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से अबाधित एकत्व प्रत्यभिज्ञान का प्रमाणपना सिद्ध हो जाने से उस अन्वयी द्रव्य की सत्ता सिद्ध हो जाती है। तथा इसके प्रतिपक्ष में दूसरा विपर्यय यह है कि पर्यायों के वास्तविक होने पर भी द्रव्यमात्र की स्थिति कहने से उन पर्यायों का असत्त्व कहना किसी दूसरे एकान्तवादी का विपर्ययज्ञान है। क्योंकि स्थास से कोश भिन्न है, कोश से कुशूल भिन्न है। पहिले ज्ञान से दूसरा ज्ञान पृथक् है, इत्यादि अबाधित भेद ज्ञान से उन पर्यायों का सद्भाव सिद्ध किया गया है। ___ द्रव्य और पर्यायों से तदात्मक हो रही वस्तु के सद्भाव होने पर भी परस्पर में भिन्न हो रहे द्रव्य और पर्याय वाद का आश्रय लेकर द्रव्यपर्यायों के साथ वस्तु के तदात्मकत्व का असत्त्व कहना अन्य नैयायिक या वैशेषिकों का विपर्यय ज्ञान है। क्योंकि उस द्रव्य और पर्यायों के साथ तदात्मक हो रही वस्तु की प्रमाणों से व्यवस्था कराई जा चुकी है।
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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