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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 75 सत्यसत्त्वविपर्यासाद् वैपरीत्येन कीर्तितात् / प्रतीयमानकः सर्वोऽसति सत्त्वविपर्ययः // 17 // सति ग्राह्यग्राहकभावादौ संविदद्वैताद्यालम्बनेन तदसत्त्ववचनलक्षणाद्विपर्ययात्पूर्वोक्ताद्विपरीतत्वेनासति प्रतीत्यारूढे ग्राह्यग्राहकभावादौ सौत्रान्तिकाद्युपवर्णिते सत्त्ववचनं विपर्ययः प्रपंचतोऽवबोद्धव्यः / एवमाहार्य श्रुतविपर्ययमुपदर्श्य श्रुतानध्यवसायं चाहार्यं दर्शयति सति त्रिविप्रकृष्टार्थे संशयः श्रुतिगोचरे / केषांचिदृश्यमानेऽपि तत्त्वोपप्लववादिनाम् // 18 // सत् पदार्थ में असत्पने का विपर्यय ज्ञान बताया जा चुका है। उस कहे गये विपर्यय ज्ञान से विपरीत प्रतीत किये गये इस असत् पदार्थ में सत्पने को कहने वाले सभी विपर्ययज्ञान हैं // 17 // ' ग्यारहवीं वार्त्तिक से पन्द्रहवीं वार्त्तिक तक पहिले सत् में असत् को कहने वाला विपर्यय ज्ञान कहा जा चुका है। किन्तु असत् में पूर्ण रूप से या एकदेश से सत्पने को जानने वला यह विपर्ययज्ञान पूर्वोक्त से विपरीत है, सत् को असत् कहने वाली पहिली प्रक्रिया को विपरीत कर यहाँ असत् को सत् कहने वाली प्रक्रिया से सभी घटित कर सकते हो। ग्राह्यग्राहकभाव, कार्यकारणभाव, स्थाप्यस्थापक भाव, सूक्ष्मस्थूलभाव, सामान्य विशेषभाव, आदि धर्मों के होने पर भी संवेदन अद्वैत, ब्रह्मअद्वैत, आदि के पक्ष को ग्रहण करके उन ग्राह्यग्राहक भाव आदि की असत्ता को कथन करने वाले लक्षण से पूर्व में कथित विपर्ययत्व ज्ञान से यह निम्नलिखित आहार्य ज्ञान विपरीत रूप से प्रसिद्ध है। क्योंकि सौत्रान्तिक बौद्ध, नैयायिक, मीमांसक, जैव आदि विद्वानों के द्वारा कथित ग्राह्यग्राहकभाव, कार्यकारणभाव, वाच्यवाचक भाव आदि धर्मों की प्रतीति में आरूढ़ नहीं होने देने के कारण पुनः उनकी सत्ता का कथन करना विपर्यय ज्ञान है। यह परमत की अपेक्षा कथन है। अद्वैतवादियों के शास्त्रों में असत् को सत् कहने वाले ज्ञान विपर्यय रूप से माने गये हैं, अन्य भी दृष्टांत देकर विस्तार से असत् में सत् को जानने वाले ज्ञान विपर्यय समझ लेने चाहिए। सम्पूर्ण पदार्थ सर्वथा नित्य नहीं हैं, उनको अपने शास्त्रों द्वारा सर्वथा नित्य कहना तथा आत्मा का आकाश के समान परम महापरिणाम नहीं मानकर इनको सर्वत्र व्यापक कहना आदि विपर्यय ज्ञान हैं तथा कुदेव और कुगुरु में सुदेव, सुगुरुपने का निश्चय कर बैठना श्रुतविपर्यय है। इस प्रकार उक्त ग्रन्थ द्वारा श्रुतज्ञान के आहार्य विपर्ययस्वरूप मिथ्याज्ञान को दिखलाकर अब श्रुतज्ञान के आहार्य संशय को और श्रुतज्ञान के आहार्य अनध्यवसाय को श्री विद्यानन्द आचार्य दिखलाते देश, काल, स्वभाव इन तीनों से व्यवहित हो रहे अर्थ के शास्त्र द्वारा विषय किये जाने पर-अथवा किन्हीं अतीन्द्रियदर्शी विद्वानों की आत्मा में प्रत्यक्षज्ञान के विषय किये जाने पर त्रिविप्रकृष्ट पदार्थों का सद्भाव होते हुए भी बौद्धवादियों के यहाँ उन त्रिविप्रकृष्ट अर्थों में जो संशयज्ञान होता है, वह आहार्य संशयज्ञानरूप श्रुतज्ञान है। तथा किन्हीं तत्त्वोपप्लववादी विद्वानों के यहाँ प्रत्यक्षज्ञान द्वारा दृष्ट पृथ्वी, जल आदि पदार्थों में भी तत्त्वों के अव्यवस्थित वाद का आग्रह होने से शास्त्रों द्वारा संशयज्ञान करा दिया जाता है अर्थात् बौद्ध विद्वान् त्रिविप्रकृष्ट पदार्थों के सद्भाव का निर्णय नहीं करते हैं। तथा अपने शास्त्रों द्वारा देश विप्रकृष्ट सुमेरु , स्वयम्भूरमण, कालविप्रकृष्ट राम, रावण, स्वभावविप्रकृष्ट परमाणु, आकाश आदि पदार्थों का सर्वथा निषेध भी नहीं करते हैं। अदृष्ट पदार्थों में एकान्तरूप से संशयज्ञान को कराते हैं। “एकांत निर्णयात् वरं संशयः”। एकांत निर्णय से संशय बना रहना कहीं अच्छा है - इस नीति के अनुसार संशयवादी बौद्धों ने त्रिविप्रकृष्ट अर्थ में अपने शास्त्रों के अनुसार संशयज्ञान कर लिया है॥१८॥
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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