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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 62 मतिश्रुतावधिज्ञानत्रयं तु स्यात्कदाचन। मिथ्येति ते च निर्दिष्टा विपर्यय इहाङ्गिनाम् // 7 // स च सामान्यतो मिथ्याज्ञानमत्रोपवर्ण्यते। संशयादिविकल्पानां त्रयाणां संगृहीयते // 8 // समुच्चिनोति चस्तेषां सम्यक्त्वं व्यावहारिकम् / मुख्यं च तदनुक्तौ तु तेषां मिथ्यात्वमेव हि॥९॥ ते विपर्यय एवेति सूत्रे चेन्नावधार्यते। चशब्दमन्तरेणापि सदा सम्यक्त्वमत्त्वतः // 10 // मिथ्याज्ञानविशेषः स्यादस्मिन्पले विपर्ययम् / संशयाज्ञानभेदस्य चशब्देन समुच्चयः॥११॥ अत्र मतिश्रुतावधीनामविशेषेण संशयविपर्यासानध्यवसायरूपत्वसक्तौ यथाप्रतीति तद्दर्शनार्थमाह प्राणियों के मति, श्रुत, अवधि ये तीन ज्ञान तो कभी-कभी मिथ्या हो जाते हैं। अत: मति, श्रुत, अवधि ज्ञान इस प्रकरण में विपर्यय (इस प्रकार) कह दिये हैं // 7 // इस सूत्र में सामान्यरूप से संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय इन तीनों का संग्रह करने के लिए मिथ्याज्ञान मात्र का वर्णन किया गया है। __ अर्थात् - 'विपर्यय:' यह जाति में एक वचन है। अत: मिथ्याज्ञानों के तीनों विशेषों का संग्रह हो जाता है // 8 // __'च' अव्यय के समुच्चय, अन्वाचय, इतरेतरयोग, समाहार आदि कितने ही अर्थ हैं। वहाँ 'च' शब्द उन मति, श्रुत, अवधिज्ञानों के व्यवहार में प्रतीत हो रहे सम्यक्पने का और मुख्य समीचीनपने का समुच्चय करने वाला है। परस्पर में नहीं अपेक्षा रखने वाले अनेक का एक में अन्वय कर देना समुच्चय है। किन्तु सूत्र में 'च' शब्द के नहीं कहने पर तो उन तीनों ज्ञानों का नियम से मिथ्यापन ही कहा जाता है॥९॥ ___वे तीनों ज्ञान विपर्यय ही हैं।' इस प्रकार विधेयदल में एवकार लगाकर अवधारण नहीं करना चाहिए। क्योंकि सूत्र में कहे हुए 'च' शब्द के बिना भी सर्वदा उन तीनों ज्ञानों का सम्यक्त्व सहितपना ज्ञात हो जाता है। भावार्थ - उत्तरदल में यदि एवकार नहीं लगाया जाए तब तो 'च' के बिना भी तीनों ज्ञानों का समीचीनपना ज्ञात हो जाता है, क्योंकि पूर्व अवधारणा से तो मन:पर्यय और केवलज्ञान के मिथ्यापन का. निषेध किया गया था। मति, श्रुत, अवधि ज्ञानों का समीचीनपना निषिद्ध नहीं किया गया है॥१०॥ इस पक्ष में सूत्रोक्त विपर्यय शब्द का अर्थ सामान्य मिथ्याज्ञान नहीं अपितु मिथ्याज्ञानों के विशेष भेद भ्रान्ति रूप विपर्यय ज्ञान को ग्रहण करना चाहिए जिसका कि लक्षण “विपरीतैककोटिनिश्चयो विपर्ययः" पदार्थ से सर्वथा विपरीत पदार्थ की एक कोटि का निश्चय करना है। 'च' शब्द से मिथ्याज्ञान के अन्य शेष बचे हुए संशय और अज्ञान इन दो भेदों का समुच्चय कर लेना चाहिए॥११॥ ___ इस प्रकरण में सूत्र के सामान्य अर्थ अनुसार मति, श्रुत, अवधि इन तीनों ज्ञानों को विशेषता रहित संशय, विपर्यय, अनध्यवसायरूप विपर्ययपने का प्रसंग आता है। प्रतीति अनुसार जिस-जिस ज्ञान में विपर्ययज्ञान के जो दो, तीन आदि भेद सम्भव हैं उनको दिखलाने के लिए श्री विद्यानन्द आचार्य वार्तिक द्वारा कथन करते हैं -
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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