________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 61 कस्याः पुनराशंकाया निवृत्त्यर्थं कस्यचिद्वा सिद्ध्यर्थमिदं सूत्रमित्याहअथ ज्ञानापि पंचानि व्याख्यातानि प्रपंचतः / किं सम्यगेव मिथ्या वा सर्वाण्यपि कदाचन // 1 // कानिचिद्वा तथा पुंसो मिथ्याशंकानिवृत्तये। स्वेष्टपक्षपक्षसिद्ध्यर्थं मतीत्याद्याह संप्रति // 2 // पूर्वपदावधारणेन सूत्रं व्याचष्टेमत्यादयः समाख्यातास्त एवेत्यवधारणात् / संगृह्येते कदाचिन्न मन:पर्यायकेवले // 3 // नियमेन तयोः सम्यग्भावनिर्णयतः सदा / मिथ्यात्वकारणाभावाद्विशुद्धात्मनि सम्भवात् // 4 // दृष्टिचारित्रमोहस्य क्षये वोपशमेऽपि वा। मन:पर्ययविज्ञानं भवन्मिथ्या न युज्यते // 5 // सर्वघातिक्षयेऽत्यन्तं केवलं प्रभवत्कथम् / मिथ्या संभाव्यते जातु विशुद्धिं परमं दधत् // 6 // कौन सी आशंका की निवृत्ति के लिए अथवा किस नव्य, भव्य अर्थ की सिद्धि के लिए यह "मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च" सूत्र की रचना की गई है? इस प्रकार जिज्ञासा होने पर श्री विद्यानन्द आचार्य उत्तर कहते हैं - विस्तार से पाँचों ही ज्ञानों का व्याख्यान किया जा चुका है। उसमें किसी का इस प्रकार शंकारूप विचार है कि क्या सभी ज्ञान समीचीन ही हैं अथवा कभी वे ज्ञान मिथ्या होते हैं? इस प्रकार मिथ्या आशंकाओं की निवृत्ति के लिए और अपने इष्ट सिद्धान्त की सिद्धि के लिए श्री उमास्वामी आचार्य देव ने इस समय “मतिश्रुतावधयों" इस सूत्र की रचना की है॥१-२॥ मति, श्रुत, अवधिज्ञान ही विपरीत हो जाते हैं, इस प्रकार पहले वाक्य के साथ “एवकार" लगाकर अवधारण कर सूत्र कहा गया है। अर्थात् मति, श्रुत और अवधिज्ञान ही मिथ्याज्ञान होते हैं। अन्य मन:पर्यय, केवलज्ञान मिथ्या नहीं होते हैं। मति आदि ज्ञान मिथ्या ही होते हैं। ऐसा नहीं कहना क्योंकि सम्यग्दृष्टि के ये ज्ञान समीचीन होते हैं। यही कहते हैं। वे मति आदि ज्ञान ही मिथ्याज्ञानरूप कहे गये हैं। . इस प्रकार पूर्व अवधारण करने से मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान कभी भी विपर्ययज्ञान से संगृहीत नहीं होते हैं क्योंकि उन मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान में सदा ही नियम से समीचीन भाव का निर्णय है। ये दो ज्ञान मिथ्यात्व कारण का अभाव होने से विशेषरूप से शुद्ध आत्मा में उत्पन्न होते हैं। अत: इनके मिथ्यापन के सम्पादन का कोई कारण नहीं है॥३-४॥ .. दर्शनमोहनीय कर्म और चारित्रमोहनीय कर्म के क्षय या उपशम अथवा क्षयोपशम के होने पर होने वाला मन:पर्यय ज्ञान कभी भी मिथ्या नहीं हो सकता है। भावार्थ - सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र के सहभावी मनःपर्ययज्ञान का होना सम्भव है। अत: ज्ञानों को मिथ्या करने वाले कारणों का सहवास नहीं होने से मन:पर्ययज्ञान समीचीन ही है, मिथ्या नहीं // 5 // सर्वघाति प्रकृतियों के अत्यन्त क्षय हो जाने पर उत्पन्न होने वाला और परम विशुद्धि का धारक केवलज्ञान भी मिथ्यारूप कैसे हो सकता है? // 6 //