________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 60 प्रादुर्भवत्करोत्याशु वृत्या सह जनौ धियं / यथा दृग्ज्ञानयोर्नृणामिति सिद्धान्तनिश्चयः // 34 // जननं जनिरिति नायमिगन्तोऽयं यतो जिरिति प्रसज्यते किं तर्हि, औणादिकइकारोऽत्र क्रियते बहुलवचनात् / उणादयो बहुलं च सन्तीति वचनात् इकारादयोऽप्यनुक्ताः कर्तव्या एवेति सिद्धं जनिरिति / तत्र जनौ सहधियं करोत्याशुवृत्त्या चक्षुर्ज्ञानं तच्छुतज्ञानं च क्रमादभवदपि कथंचिदिति हि सिद्धान्तविनिश्चयो न पुनः सह क्षायोपशमिकदर्शनज्ञाने सोपयोगे मतिश्रुतज्ञाने वा येन सूत्राविरोधो न भवेत्। न चैतावता परमतसिद्धिस्तत्र सर्वथा क्रमभाविज्ञानव्यवस्थितेरिह कथंचित्तथाभिधानात् / / मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च // 31 // भावार्थ - छद्मस्थ जीवों के लब्धिस्वरूप एक साथ 4 ज्ञान, 3 दर्शन हो सकते हैं, परन्तु उपयोगात्मक एक समय में एक ही रहता है।।३४।। उक्त कारिका में कहा गया जनि शब्द ‘जनी प्रादुर्भावे' धातु से भाव में 'इ' प्रत्यय कर बनाया गया है। उपज जाना जनि कहलाता है। यह जनि शब्द इक् प्रत्यय अन्त में करके नहीं बनाया गया है। जिससे कि इन् भाग 'टि' का लोप होकर 'जि' इस प्रकार रूप बन जाने का प्रसंग प्राप्त होता। ... शंका - ‘जनि' यहाँ कौनसा प्रत्यय किया गया है? समाधान - यहाँ उणादि प्रत्ययों में कहा गया इकार प्रत्यय किया गया है। "उणादयो बहुलं" यहाँ बहुल शब्द के कथन से शब्दसिद्धि के उपयोगी अनेक प्रत्यय कर लिये जाते हैं। उण, किरच्, उ, ई, रु, इत्यादि बहुत से प्रत्यय हैं, ऐसा वैयाकरण ने कहा है। अतः सूत्रों में कण्ठोक्त नहीं कहे गये भी इकार आदिक प्रत्यय धातुओं से कर लेने ही चाहिए। इस प्रकार ‘जनि' यह शब्द सिद्ध होता है। इस उत्पत्ति में कथंचित् क्रम से प्रकट भी चक्षुइन्द्रियजन्य और श्रृंत ये दोनों ज्ञान चक्रभ्रमण समान शीघ्रवृत्ति हो जाने से साथ उत्पन्न हुए की बुद्धि कर देते हैं। इस प्रकार जैन सिद्धान्त का विशेषरूप से निश्चय है। किन्तु फिर आवरणों के क्षयोपशम से उत्पन्न हुए उपयोगात्मक दर्शन और ज्ञान अथवा उपयोग सहित मतिज्ञान और श्रुतज्ञान एक साथ नहीं होते हैं जिससे श्री समन्तभद्र स्वामी की कारिका का श्री उमास्वामी के द्वारा कहे गये सूत्र के साथ विरोध नहीं होता है। अर्थात् - दोनों आचार्यों के वाक्य अविरुद्ध हैं। इतना कह देने से बौद्ध, नैयायिक आदि दूसरे मतों की सिद्धि नहीं हो जाती है, क्योंकि उन्होंने सभी प्रकार क्रम से होने वाले ज्ञानों की व्यवस्था की है और यहाँ स्याद्वाद सिद्धान्त में किसी अपेक्षा से क्रम से और अक्रम से उपयोगों का उत्पन्न होना कहा है। अतः अनुपयोगात्मकज्ञान एक आत्मा में एक को आदि लेकर चार ज्ञान तक हो जाते हैं। यह सिद्धान्त निश्चित है। परन्तु उपयोगात्मक एक ही ज्ञान रहता है, पूर्वोक्त मति आदि ज्ञान ज्ञानस्वरूप ही हैं कि अन्यथा भी हैं? ऐसी आशंका होने पर आचार्य कहते हैं - मति, श्रुत और अवधि ये तीन ज्ञान मिथ्यादर्शन के संसर्ग से विपरीत भी होते हैं।॥३१॥