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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 59 नन्वश्वकल्पनाकाले गोदृष्टे: सविकल्पताम्। कथमेवं प्रसाध्येत क्वचित्स्याद्वाद्वेदिभिः // 28 // संस्कारस्मृतिहेतुर्या गोदृष्टिः सविकल्पिका / सान्यथा क्षणभंगादि दृष्टिवन्न तथा भवेत् // 29 // इत्याश्रयोपयोगाया: सविकल्पत्वसाधनं / नेत्रालोचनमात्रस्य नाप्रमाणात्मनः सदा // 30 // गोदर्शनोपयोगेन सहभावः कथं न तु। तद्विज्ञानेऽस्य योगस्य नार्थव्याघातकृत्तदा // 31 // इत्यचोद्यं दृशस्तत्रानुपयुक्तत्वसिद्धितः। पुंसो विकल्पविज्ञानं प्रत्येवं प्रणिधानतः॥३२॥ सोपयोगं पुनश्चक्षुर्दर्शनं प्रथमं ततः / चक्षुर्ज्ञानं श्रुतं तस्मात्तत्रार्थेऽन्यत्र च क्रमात् // 33 // स्मृतियाँ नहीं हो पाती हैं। यदि जैन जन गौदर्शन के समय अश्व का सविकल्पज्ञान नहीं मानेंगे तो पश्चात् गौ का स्मरण नहीं हो सकता है। दोनों के एक साथ मान लेने पर तो गौ दर्शन में अश्वविकल्प से सविकल्पपना आ जाता है और वह संस्कार जमाता हआ पीछे काल में होने वाली स्मति का कारण हो जाता है। अत: बौद्धों के मन्तव्यानुसार दर्शनज्ञान और विकल्प ज्ञान दोनों का यौगपद्य बन सकता है।।२८२९॥ - इस प्रकार अश्वविकल्प के आश्रय से होने वाले उपयोगस्वरूप गोदृष्टि (निर्विकल्पज्ञान) को सविकल्पकपना साधना ठीक है। अप्रमाणस्वरूप हो रहे नेत्रजन्य केवल आलोचन (मात्र दर्शन) को सर्वदा सविकल्पकपना नहीं साधा जाता है। अत: उस उपयोगात्मक सविकल्पक विज्ञान का गोदर्शन स्वरूप उपयोग के साथ तो एक काल में सद्भाव क्यों नहीं होगा? यानी दोनों ज्ञान एक साथ रह सकते हैं। उस समय अर्थ का व्याघात करने वाला कोई दोष नहीं आता है।३०-३१ / / समाधान - इस प्रकार बौद्धों की शंका समीचीन नहीं है। क्योंकि अश्व का विकल्पज्ञान करते समय गौदर्शन के अनुपयुक्तपने की सिद्धि हो जाती है। ज्ञाता पुरुष का विकल्पज्ञान के प्रति ही एकाग्र मनोव्यापार लगा रहता है। आत्मा के उपयोग क्रम से ही होते हैं। पहिले उपयोग सहित चक्षु इन्द्रियजन्य दर्शन होता है, वह पदार्थों की सत्ता का सामान्य आलोकन कर लेता है। उसके पीछे चक्षुइन्द्रियजन्य मतिज्ञान होता है जो कि रूप, आकृति और घट आदि की विकल्पना करता हुआ उनको विशेषरूप से जान लेता है। उसके भी पीछे उस अर्थ में या उससे सम्बन्ध रखने वाले अन्य पदार्थों में क्रम से श्रुतज्ञान होता ... क्वचित् चक्षुदर्शन, चाक्षुष अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा, स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क और अनुमान से उपयोग क्रम से अनेक क्षणों में उत्पन्न हैं। आत्मा का एक समय में एक ही उपयोग हो सकता है।।३२३३॥ ____ जीवों के जिस प्रकार निराकार दर्शन और साकारज्ञान उपयोग की शीघ्रं वृत्ति हो जाने से स्थूलबुद्धि पुरुषों के यहाँ एक साथ उत्पन्न हो जाने की बुद्धि उत्पन्न कर देते हैं, उसी प्रकार गौदर्शन और अश्वविकल्प या चाक्षुष, मतिज्ञान और श्रुतज्ञान ये भी उपयोग क्रम से होते हुए भी शीघ्र हो जाने से एक साथ दोनों की उत्पत्ति हो जाने में बुद्धि को प्रकट कर देते हैं। यह निर्णीत सिद्धान्त है।
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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