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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 58 पंचषैः समयैस्तेषां किन्न रूपादिवेदनम् / विच्छिन्नमपि भातीहाविच्छिन्नमिव विभ्रमात् // 22 // व्यवसायात्मकं चक्षुर्ज्ञानं गवि यदा तदा। मतङ्गजविकल्पोऽपीत्यनयोः सकृदुद्भवः // 23 // ज्ञानोदयसकृजन्मनिषेधे हन्ति चेन्न वै। तयोरपि सहैवोपयुक्तयोरस्ति वेदनम् // 24 // यदोपयुज्यते हात्मा मतङ्गजविकल्पने। तदा लोचनविज्ञानं गवि मन्दोपयोगहृत् // 25 // तथा तत्रोपयुक्तस्य मतङ्गजविकल्पने। प्रतीयन्ति स्वयं सन्नो भावयन्तो विशेषतः // 26 // समोपयुक्तता तत्र कस्यचित्प्रतिभाति या। साशु संचरणाद्भ्रान्तेर्गोकुञ्जरविकल्पवत् // 27 // न्यून पाँच समयों में होंगे। स्थूल दृष्टि वाले जीवों के पूरी खाते समय भी हुआ एक-एक ज्ञान असंख्यात समयों को घेर लेता है। अतः प्रतिवादियों द्वारा स्वीकार किए गये "कमलपत्रशतछेद" दृष्टान्त की सामर्थ्य से रूप आदि ज्ञानों का विच्छेद सिद्ध किया गया है।।२१-२२॥ जिस समय गौ में चक्षु इन्द्रियजन्य निर्विकल्पक (निश्चयात्मक) स्वरूप प्रत्यक्षज्ञान होता है, उसी समय हाथी का विकल्पज्ञान भी होता है। अत: इन दो ज्ञानों के एक साथ उत्पन्न हो जाने से जैनों द्वारा माने गये दो ज्ञानों की एक समय में उत्पत्ति के निषेध को खण्डन हो जाता है। अर्थात् दो ज्ञान एक साथ हो जाते हैं। ऐसा नहीं कहना चाहिए क्योंकि उपयोग को प्राप्त उन गोदर्शन और गजविकल्प दोनों ज्ञानों का एक साथ अनुभव नहीं हो सकता है। जिस समय आत्मा हाथी का विकल्पज्ञान करने में उपयुक्त होता है, उस समय गौ में हुआ नेत्रजन्यज्ञान मन्द उपयोगी होता हुआ नष्ट हो जाता है। अत: निर्विकल्पक और सविकल्पक दोनों ज्ञान क्रम से ही उत्पन्न होते हैं, ऐसा समझना चाहिए // 23-24-25 // तथा जिस समय आत्मा गौ के चाक्षुषप्रत्यक्ष करने में उपयोगी है, उस समय हाथी का विकल्पज्ञान करने में मन्द होकर अपने उपयोग का उपसंहार कर रह है। विशेष रूपों से भावना करने वाले सज्जन इस तत्त्व की स्वयं प्रतीति करते हैं। किसी पुरुष को उन दोनों ज्ञानों में जो समानकाल उपयक्तपना प्रतिभासित है, वह शीघ्र-शीघ्र ज्ञानों का संचार हो जाने के वश हुई भ्रान्ति से देखा गया है। जैसे गौ का विकल्पज्ञान और हाथी का विकल्प ज्ञान / यद्यपि ये दो विकल्पज्ञान क्रम से होते हैं, फिर भी शीघ्र-शीघ्र आगे-पीछे हो जाने से भ्रमवश एक काल में हुए समझ लिये जाते हैं // 26-27 // . शंका - उक्त प्रकार से एक समय में एक ही ज्ञान मान लेने पर घोड़े का विकल्पज्ञान करते समय गौ के दर्शन की सविकल्पता को स्याद्वादसिद्धान्त के जानने वाले विद्वानों के द्वारा कहीं कैसे सिद्ध किया जाएगा? अन्यथा, यानी, गौ दर्शन को उसी समय यदि सविकल्पक नहीं माना जायेगा तो क्षणिकत्व, स्वर्गप्रापणशक्ति, आदि के दर्शनों के समान वह गौदर्शन भी सविकल्प हो जायेगा तथा संस्कारों द्वारा स्मृति का कारण नहीं हो सकेगा। अर्थात् - वस्तुभूत क्षणिकत्व का ज्ञान तो निर्विकल्पक दर्शन से ही हो चुका था, फिर भी नित्यत्व के समारोह को दूर करने के लिए सत्त्वहेतु द्वारा पदार्थों के क्षणिकपने को अनुमान से सिद्ध किया जाता है। क्षणिकत्व आदि के दर्शनों का सविकल्पकपना नहीं होने के कारण पीछे उनकी
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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