________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 63 तत्र त्रिधापिं मिथ्यात्वं मतिज्ञाने प्रतीयते। श्रुते च द्विविधं बोध्यमवधौ संशयाद्विना // 12 // तस्येन्द्रियमनोहेतुसमुद्भूतिनियामतः। इन्द्रियानिन्द्रियाजन्यस्वभावश्चावधिः स्मृतः // 13 // मतौ श्रुते च त्रिविधं मिथ्यात्वं बोद्धव्यं मतेरिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तकत्वनियमात् / श्रुतस्यानिन्द्रियनिमित्तकत्वनियमात् द्विविधमवधौ संशयाद्विना विपर्ययानध्यवसायावित्यर्थः। कुतः संशयादिन्द्रियानिन्द्रियाजन्य-स्वभावः प्रोक्तः। संशयो हि चलिताप्रतिपत्तिः, किमयं स्थाणुः किं वा पुरुष इति। स च सामान्यप्रत्यक्षाद्विशेषाप्रत्यक्षादुभयविशेषस्मरणात् प्रजायते / दूरस्थे च वस्तुनि इन्द्रियेण सामान्यतश्च सन्निकृष्टे सामान्यप्रत्यक्षत्वं विशेषाप्रत्यक्षत्वं च दृष्टं मनसा च पूर्वानुभूततदुभयविशेषस्मरणेन, न चावध्युत्पत्तौ क्वचिदिन्द्रियव्यापारोऽस्ति मनोव्यापारो वा स्वावरणक्षयोपशमविशेषात्मना सामान्यविशेषात्मनो वस्तुनः ___ इन तीनों ज्ञानों में से मतिज्ञान और श्रुतज्ञान में तो तीनों प्रकार का मिथ्यापना प्रतीत होता है तथा अवधिज्ञान में संशय के बिना विपर्यय और अनध्यवसायस्वरूप दो प्रकार का मिथ्यापन जानना चाहिए। क्योंकि वह मतिज्ञान तो नियम से इन्द्रिय और मन से उत्पन्न होता है और श्रुतज्ञान मन को निमित्त मानकर उत्पन्न होता है। अत: परतंत्रता से उत्पन्न हुए दोनों ज्ञानों में तीनों प्रकार के मिथ्यापन हो जाते हैं। संशयपना तो इन्द्रिय और अनिन्द्रिय से उत्पन्न होने पर ही घटित होता है। किन्तु अवधिज्ञान तो इन्द्रियों और अनिन्द्रिय से उत्पन्न न होकर केवल क्षयोपशम की अपेक्षा रखनेवाले आत्मा से ही उत्पन्न होता है अत: इसके विषय में संशय नहीं हो सकता है॥१२-१३॥ ____ मतिज्ञान और श्रुतज्ञान में तीनों प्रकार का मिथ्यात्व समझ लेना चाहिए, क्योंकि मतिज्ञान के निमित्त कारण इन्द्रिय और अनिन्द्रिय हैं, ऐसा नियम है। तथा श्रुतज्ञान का निमित्तकारण नियम से मन माना गया है। किन्तु अवधिज्ञान में संशय के बिना दो प्रकार का मिथ्यात्व जानना चाहिए। इसका अर्थ यह हुआ कि अवधिज्ञान में विपर्यय और अनध्यवसाय ये दो मिथ्यात्व हो सकते हैं, संशय नहीं। शंका - अवधिज्ञान में संशय के बिना दो ही मिथ्यात्व क्यों होते हैं? . समाधान - इन्द्रिय और अनिन्द्रिय से नहीं उत्पन्न होना है स्वभाव जिसका, ऐसा अवधिज्ञान कहा गया है। चलायमान प्रतिपत्ति का होना संशय है, जैसे कि कुछ अंधेरा होने पर दूरवर्ती ऊँचे कुछ मोटे पदार्थ में क्या यह ढूंठ है? अथवा क्या यह मनुष्य है? इस प्रकार एक वस्तु में विरुद्ध अनेक कोटियों को स्पर्श करने वाला ज्ञान संशय कहा जाता है। तथा वह संशय ज्ञान सामान्य धर्मों का प्रत्यक्ष हो जाने से और विशेष धर्मों का प्रत्यक्ष नहीं होने से, तथा उन दोनों विशेष धर्मों का स्मरण हो जाने से उत्पन्न होता है। दूर देश में स्थित वस्तु के इन्द्रियों के द्वारा सामान्यरूप से यथायोग्य संनिकर्षयुक्त हो जाने पर सामान्य धर्मों का प्रत्यक्ष होना और विशेष धर्म का प्रत्यक्ष नहीं होना देखा गया है। पूर्व में अनुभूत उन दोनों वस्तुओं के विशेष धर्मों का मन इन्द्रिय द्वारा स्मरण करके स्मरणज्ञान उत्पन्न होता है, तब संशय होता है। अत: संशय के कारण मिल जाने पर मति और श्रुत में तो संशय नाम के मिथ्याज्ञान का भेद सम्भव है किन्तु अवधिज्ञान की उत्पत्ति होने में इन्द्रियों का अथवा मन का व्यापार नहीं होता है। सामान्य का प्रत्यक्ष होने पर और विशेष का प्रत्यक्ष