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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 48 लङ्घनादिकदृष्टान्तः स्वभावान विलंघने। नाविर्भावे स्वभावस्य प्रतिषेधः कुतश्शन // 36 // स्वाभाविकी गतिर्न स्यात्प्रक्षीणाशेषकर्मणः। क्षणादूर्ध्वं जगच्चूडामणौ व्योम्नि महीयसि।३७॥ वीर्यान्तरायविच्छेदविशेषवशतोपरा। बहुधा केन वार्येत नियतं व्योमलङ्घनात् // 38 / / ततो यदुपहसनमकारि भट्टेन। “यैरुक्तं केवलज्ञानमिन्द्रियाद्यनपेक्षिणः। सूक्ष्मातीतादिविषयं सूक्तं जीवस्य तैरदः” इति, तदपि परिहतमित्याह ततः समन्ततश्चक्षुरिन्द्रियाद्यनपेक्षिणः। निःशेषद्रव्यपर्यायविषयं केवलं स्थितं // 39 // तदेवं प्रमाणत: सिद्धे केवलज्ञाने सकलकुवाद्यविषये युक्तं तस्य विषयप्ररूपणं मतिज्ञानादिवत् // एकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुर्थ्यः॥३०॥ आत्मा के वीर्यगुण का प्रतिबंध करने वाले वीर्यान्तराय कर्म का क्षयोपशमविशेष या क्षयं के वश से और भी बहुत प्रकार की गतियों का होना किसके द्वारा निषेध किया जा सकता है? अर्थात् - नहीं। एक कोस, सौ कोस, कोटि योजन, एक राजू, सात राजू, इस प्रकार की नियतरूप से आकाश को उल्लंघने वाली गतियाँ प्रमाण सिद्ध हैं। अत: मीमांसकों का दृष्टांत विषम है और स्वपक्ष का घातक है॥३६-३७३८॥ अत: मीमांसक कुमारिल भट्ट ने जो जैनों का उपहास किया था कि जिन जैनों ने इन्द्रिय, मन, हेतु, सादृश्य, पद आदि की अपेक्षा नहीं रखने वाले जीव के सूक्ष्म, भूत, भविष्यत् आदि पदार्थों को विषय करने वाला केवलज्ञान कहा है, उन जैनों ने यह तत्त्व बहुत अच्छा कहा है। इस प्रकार भट्ट के उपहास वचन का भी खण्डन कर दिया है। इसी बात को श्री विद्यानन्द आचार्य वार्तिक द्वारा कहते हैं - अत: यह व्यवस्थित हो गया कि चारों ओर से चक्षु इन्द्रिय, मन, ज्ञापक हेतु, अर्थापत्ति, उत्थापक अर्थ, वेदवाक्य आदि की अपेक्षा नहीं करने वाले आवरण रहित जीव के (केवलज्ञानी के) सम्पूर्ण द्रव्य और सम्पूर्ण पर्यायों को विषय करने वाला केवलज्ञान प्रकट हो जाता है। केवलज्ञान के सद्भाव में बाधा देने वाले प्रमाणों की असंभवता है॥३९।। इस प्रकार सम्पूर्ण कुचोद्य (कुशंका) करने वाले वादियों की समझ में नहीं आने वाले केवलज्ञान की प्रमाणों से सिद्धि हो चुकनेपर क्रमप्राप्त उस केवलज्ञान में मतिज्ञान आदि के समान विषय का निरूपण करना युक्त है। अब सूत्रकार एक जीव के एक साथ होने वाले ज्ञानों का कथन करते हैं - एक आत्मा में एक ही समय में एक को आदि लेकर भाज्यस्वरूप चार ज्ञान तक हो सकते हैं॥३०॥
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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