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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक* 49 कान्प्रतीदं सूत्रमित्यावेदयति;एकत्रात्मनि विज्ञानमेकमेवैकदेति ये। मन्यन्ते तान्प्रति प्राह युगपज्ज्ञानसम्भवम् // 1 // अत्रैकशब्दस्य प्राथम्यवचनत्वात्प्राधान्यवचनत्वाद्वा क्वचिदात्मनि ज्ञानं एकं प्रथम प्रधानं वा संख्यावचनत्वादेकसंख्यं वा वक्तव्यं / तच्च किं द्वे च ज्ञाने किं युगपदेकत्र त्रीणि चत्वारि वा ज्ञानानि कानीत्याह; प्राच्योकं मतिज्ञानं श्रुतिभेदानपेक्षया। प्रधानं केवलं वा स्यादेकत्र युगपन्नरि // 2 // ___ अर्थात् - चाहे विग्रहगति में आत्मा हो अथवा सूक्ष्म निगोदिया के शरीर में हो, उसके कोई न कोई ज्ञान तो अवश्य होगा। ज्ञानरहित आत्मा नहीं रह सकती तथा एक समय में चार ज्ञानों से अधिक लब्धिस्वरूप ज्ञान नहीं हो सकते हैं॥३०॥ _श्री उमास्वामी आचार्य ने किन प्रवादियों के प्रति इस “एकादीनि' आदि सूत्र को कहा है? इस प्रकार जिज्ञासा होने पर श्री विद्यानन्द आचार्य उत्तर स्वरूप कहते हैं -... जो नैयायिक आदि वादी एक समय में एक आत्मा में एक ही विज्ञान होता है, ऐसा मानते हैं, उन . विद्वानों के प्रति एक समय में होने वाले ज्ञानों को समझाने के लिए यह सूत्र कहा है। अर्थात् - एक समय में एक आत्मा को एक ही ज्ञान नहीं होता है किन्तु योग्यता स्वरूप चार ज्ञान तक हो सकते हैं। जैन दर्शन के अतिरिक्त लब्धिस्वरूप ज्ञानों की अन्य मतों में चर्चा नहीं है। वे तो उपयोगात्मक एक ही ज्ञान मानते हैं॥१॥ .. 'एक' इस शब्द के संख्या, असहाय, प्रधान, प्रथम, भिन्न आदि अनेक अर्थ होते हैं। किन्तु इस सूत्र में एक शब्द का अर्थ प्रथम अथवा प्रधान विवक्षित है। संख्येयं में प्रवर्त रहे एक शब्द के द्वारा प्रथम का कथन करना अर्थ होने से अथवा प्रधान अर्थ का कथन करना हो तो किसी एक आत्मा में एक अर्थात् प्रथम ज्ञान मतिज्ञान अथवा एक यानी प्रधान ज्ञान केवलज्ञान हो सकता है? अथवा एक शब्द द्वारा संख्या का कथन करने पर एक संख्या वाला ज्ञान कहना चाहिए। . एक से लेकर चार ज्ञान तक होते हैं। उनमें एक ज्ञान कौनसा है? और युगपत् होने वाले दो ज्ञान कौनसे हैं? तथा एक ही समय में एक आत्मा में होने वाले तीन ज्ञान कौन से हैं? अथवा एक ही समय में एक आत्मा में होने वाले चार ज्ञान कौनसे हैं? इस प्रकार प्रश्न होने पर श्री विद्यानन्द आचार्य उत्तर कहते हैं___. 'प्रथम' इस अर्थ को कहने वाले एक शब्द की विवक्षा करने पर एक आत्मा में युगपत् पहिला मतिज्ञान एक होगा। यहाँ श्रुतज्ञान के भेदों की अपेक्षा नहीं की गई है। यद्यपि मतिज्ञान और श्रुतज्ञान दोनों अविनाभावी हैं; एक इन्द्रिय वाले जीव के भी दोनों ज्ञान विद्यमान हैं किन्तु एक शब्द का प्रथम अर्थ विवक्षित होने पर विद्यमान श्रुतविशेषों की अपेक्षा नहीं करके एक ही मतिज्ञान का सद्भाव कह दिया गया है। श्रुतज्ञान का विशेष संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव के शब्दजन्य वाच्य अर्थ का ज्ञान होने पर माना गया है। अतः खाते, पीते, छूते, सूंघते, देखते हुए जीव के एक मतिज्ञान ही विवक्षित किया है। अथवा एक शब्द का अर्थ 'प्रधान' ऐसा किया जाता है, तब एक जीव में प्रधान ज्ञान केवलज्ञान हो सकेगा अन्य नहीं // 2 //
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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