________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक*४७ यत एवमतीन्द्रियार्थपरिच्छेदनसमर्थं प्रत्यक्षमसर्वज्ञवादिनं प्रति सिद्धम् / / ततः सातिशया दृष्टाः प्रज्ञामेधादिभिर्नराः। भूताद्यशेषविज्ञानभाजश्वेच्चोदनाबलात् // 34 // किन्न क्षीणावृतिः सूक्ष्मानर्थान्द्रष्टुं क्षमः स्फुटं। मंदज्ञानानतिक्रामन्नातिशेते परान्नरान् // 35 // यदि परैरभ्यधायि। “दशहस्तान्तरं व्योम्नि यो न नामात्र गच्छति। न योजनमसौ गंतुं शक्तोभ्यासशतैरपि' इत्यादि। तदपि न युक्तमित्याह जिस प्रकार सर्वज्ञ को नहीं मानने वाले मीमांसक, नास्तिक आदि वादियों के प्रति अतीन्द्रिय अर्थों को साक्षात् युगपत् जानने की सामर्थ्य से युक्त प्रत्यक्षज्ञान सिद्ध कर दिया गया है, इस पंक्ति के ‘यत:' का अन्वय अग्रिम वार्तिक में पड़े हुए 'ततः' शब्द के साथ लगा लेना चाहिए; उसी प्रकार आगामी काल के परिणाम को विचारने वाली बुद्धि प्रज्ञा और धारणा नामक संस्कार को धारने वाली बुद्धि मेधा आदि के द्वारा मानव अतिशय सहित देखे जाते हैं। वे मनुष्य इस ज्ञान का प्रकर्ष बढ़ाते हुए भूत, भविष्यत्, विप्रकृष्ट आदि सम्पूर्ण पदार्थों के विज्ञान को धारने वाले बन सकते हैं, इसमें कोई बाधक नहीं है। जैसे मीमांसक मत में वेदवाक्यों की सामर्थ्य से मानव भूत आदि पदार्थों का ज्ञाता हो सकता है, वैसे जिस मनुष्य के ज्ञानावरण कर्मों का पूर्ण क्षय हो चुका है, वह पुरुष सूक्ष्म व्यवहित आदि अर्थों को विशदरूप से देखने के लिए क्यों नहीं समर्थ होगा? और मन्दज्ञान वाले दूसरे मनुष्यों का अतिक्रमण करता हुआ उन मनुष्यों से अधिक चमत्कार को धारण करने वाला क्यों नहीं हो जाएगा? अर्थात् ज्ञानावरणों का क्षय करने वाला मनुष्य सूक्ष्म आदि अर्थों को अवश्य विशद जान लेता है और अन्य अल्पज्ञानियों से अधिक चमत्कारी हो जाता है।।३४-३५॥ ". मीमांसकों ने अपने आगम में कहा है कि जो जीव आकाश में उछल कर दस हाथ का अन्तर लेकर चल सकता है, वह सैकड़ों अभ्यास करके भी एक योजन तक जाने के लिए समर्थ नहीं है यह कथन भी युक्तिपूर्ण नहीं। इसी बात को श्री विद्यानन्द आचार्य स्पष्ट कर कहते हैं - उछलना, कूदना, उल्लंघना आदि दृष्टान्त तो स्वभाव से ही बहुत दूर तक उल्लंघन करने वाले पदार्थ में उपयोगी नहीं है। दूर तक ऊपर चले जाना आदि स्वभाव के प्रकट हो जाने पर किसी भी प्रकार से असंख्य योजन तक उछल जाने रूप स्वभाव का निषेध नहीं होता है। जीव या पुद्गल का ऊर्ध्वगति स्वभाव प्रकट हो जाने पर एक योजन तो क्या असंख्य योजन तक उछलना प्रतीत हो जाता है। यदि ऐसा नहीं माना जायेगा तो बड़े भारी लोकाकाश में ऊपर जगत् के चूडामणि स्वरूप तनुवातवलय में सम्पूर्ण कर्मों का क्षय कर चुके सिद्ध भगवान् की एक समय में स्वभाव से होने वाली गति नहीं हो सकती। भावार्थ - सम्पूर्ण आठ कर्मों का क्षय कर मुक्तात्मा यहाँ कर्मभूमि से सात राजू ऊपर सिद्ध लोक में एक ही समय में जा पहुँचती है। एक राजू में असंख्यात योजन होते हैं।