________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक*४६ सर्वार्थविषयत्वेनात्यन्तप्रकृष्टस्यानभ्युपगमात् / न चैवमप्रसिद्धविशेष्यादिदोषः पक्षादेः सम्भवति केवलं मीमांसकान्प्रति यदैतत्साधनं तदा प्रत्यक्षं विशदं सूक्ष्माद्यर्थविषयं साधयत्येवानवद्यत्वात् / यदा तु नास्तिकं प्रति सर्वार्थगोचरं ज्ञानसामान्यं साध्यते तदा तस्य करणक्रमव्यवधानातिवर्तित्वं स्पष्टत्वं च कथं सिद्ध्यति इत्याह; तच्च सर्वार्थविज्ञानं पुन: सावरणं मतं। अदृष्टत्वाद्यथा चक्षुस्तिमिरादिभिरावृतं // 31 // ज्ञानस्यावरणं याति प्रक्षयं परमं क्वचित् / प्रकृष्यमाणहानित्वाद्धमादौ श्यामिकादिवत्॥३२॥ ततोऽनावरणं स्पष्टं विप्रकृष्टार्थगोचरं। सिद्धमक्रमविज्ञानं सकलंकमहीयसाम् // 33 // लेता है। इस प्रकार मीमांसकों ने स्वीकार किया है। उनके प्रति जैनाचार्य कहते हैं कि मीमांसकों का यह कथन उचित नहीं है, क्योंकि ज्ञानपद से प्रत्यक्ष सामान्य को हमने पक्ष कोटि में ग्रहण किया है। मीमांसकों ने प्रत्यक्षज्ञान द्वारा सभी पदार्थों को विषय कर लेना नहीं माना है। अत: हेतु असिद्ध को सिद्ध करने वाला होने से हमारे प्रति सिद्ध साधन दोष मीमांसक नहीं उठा सकते। इस प्रकार सामान्यज्ञान या सामान्यप्रत्यक्ष को पक्ष करने पर पक्ष, साध्य, प्रतिज्ञा आदि के अप्रसिद्ध-विशेष्यता, अप्रसिद्ध विशेषणता,स्वरूपासिद्धि, आश्रयासिद्धि आदिक दोष संभव नहीं हैं। केवल मीमांसकों के प्रति यह हेत्वाभास दोष आता है जैनों के प्रति नहीं। अत: कोई प्रत्यक्षज्ञान अतीव विशद होता है, यह सिद्ध हो ही जाता है। क्योंकि हेतु दोषों से रहित होने के कारण हमारा हेतु निर्दोष है। नास्तिकवादियों के प्रति ज्ञान सामान्य को सम्पूर्ण अर्थों का विषय करने वाला सिद्ध करते हैं तब . उस सम्पूर्ण अर्थों के ज्ञान को इन्द्रियों के क्रम पूर्वक होना, व्यवधान का उल्लंघन करना और स्पष्टपना कैसे सिद्ध हो जाता है? इस प्रकार जिज्ञासा होने पर श्री विद्यानन्द आचाय कहते हैं दृष्टव्य सम्पूर्ण पदार्थों का प्रत्यक्ष कर लेने वाला नहीं होने से स्वभाव से ही सम्पूर्ण अर्थों को जानने वाले उस विज्ञान को फिर आवरणों से सहित माना है। जैसे तमारा, कामल आदि दोषों से ढका हुआ नेत्र। आवृतं सहितं अर्थात् - संसारी जीवों की चेतना शक्ति के ऊपर आवरण और दोष आ गए हैं। अत: वह ज्ञान इन्द्रियों के क्रम से होता है और व्यवधान युक्त होता है। आवरणों के सर्वथा दूर हो जाने पर वह अतीन्द्रिय सर्वज्ञज्ञान युगपत् सम्पूर्ण अर्थों को स्पष्ट जान लेता है।३१।। किसी न किसी आत्मा में ज्ञान का आवरण उत्कृष्ट रूप से प्रकृष्ट क्षय को प्राप्त हो जाता है। जैसे स्वर्ण आदि में कालिमा किट्ट आदि की वृद्धि हानि किसी सोने में प्रकष्टपने को प्राप्त हो जाती है। इससे सिद्ध होता है कि स्वभाव विप्रकृष्ट परमाणु, कार्मणवर्गणाएँ आदि तथा देश विप्रकृष्ट, काल विप्रकृष्ट सुमेरु राम आदि और भी सम्पूर्ण पदार्थों को विषय करने वाला महान् पुरुषों का ज्ञान, ज्ञानावरणकर्म के पटलों से रहित है, अतीव विशद है, क्रम से नहीं होता हुआ सबको युगपत् जानता है तथा अज्ञान, राग, द्वेष आदि कलंकों से रहित है // 31-32-33 / /