________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक*४५ नाप्यक्रम करणातीतं परिस्फुटं ज्ञानं तथा साध्यते यतस्तस्यैव धर्मिणोरप्रसिद्धविशेष्यता स्वरूपादेः सिद्धिश्च हेतुर्धर्मिणोसिद्धौ तद्धर्मस्य साधनस्यासम्भवादाश्रयासिद्धश्च भवेत्। किं तर्हि ज्ञानसामान्यं धर्मि? न च तस्य सर्वार्थगोचरत्वेन परमप्रकर्षमात्रे साध्ये सिद्धसाध्यता भूतादिविषयं चोदनाज्ञानमनुमानादिज्ञानं वा प्रकृष्टमनिच्छन्तं वादिनं नास्तिकं प्रति प्रयोगात् / मीमांसकं प्रति तत्प्रयोगे सिद्धसाधनमेव भूताद्यशेषार्थगोचरस्य चोदनाज्ञानस्य परमप्रकर्षप्राप्तस्य तेनाभ्युपगतत्वादिति चेन्न, तं प्रति प्रत्यक्षसामान्यस्य धर्मित्वात्तस्य तेन सिद्ध नहीं की जा रही है और हेतुजन्य ज्ञान या आगम, व्याप्तिज्ञान आदि विज्ञानों की परम प्रकर्षता भी नहीं साधी जा रही है जिससे कि सिद्धसाधन नामक दोष कठिनता से दूर किया जा सके। भावार्थ - अक्षविज्ञान को पक्ष बना लेने पर सिद्धसाधन दोष अवश्य आता है क्योंकि दूसरे मीमांसक या नास्तिक विद्वानों के यहाँ भी इन्द्रियज्ञान में और अनुमान आदि ज्ञानों में परम प्रकर्ष तक प्राप्त हो जाना इष्ट किया गया है। इस प्रकार क्रमरहित, अतीन्द्रिय, परिपूर्ण, विशदज्ञान के भी परमप्रकर्ष को नहीं साध रहे हैं जिससे कि उस धर्मी की ही असिद्धि हो जाने से पक्ष का अप्रसिद्ध विशेष्यपना दोष लगता है। अर्थात् - उक्त तीन (अक्रम, विशद, अतीन्द्रिय) उपाधियों से युक्त ज्ञानस्वरूप विशेष्य अभी तक प्रसिद्ध नहीं हुआ है। ऐसी दशा में ज्ञान सामान्य को पक्ष कर लेने पर मीमांसकजन अप्रसिद्धविशेष्यता दोष को हमारे ऊपर नहीं उठा संकते हैं। तथा परिपूर्ण ज्ञान की पुन: परमप्रकर्षपने की प्राप्ति तो फिर होती नहीं है जिससे कि पक्ष में हेतु के न रहने पर हमारा तारतम्य से अधिरूढ़पना हेतु स्वरूपासिद्ध हो सके। परिपूर्ण ज्ञान पक्ष कोटि में नहीं है तो फिर हेतु स्वरूपासिद्ध कैसे हो सकता है? और धर्मीज्ञान की सिद्धि नहीं हो चुकने पर उस असम्भूत पक्ष में रहना हेतुस्वरूप धर्म का असम्भव हो जाने से हमारा हेतु आश्रयासिद्ध हेत्वाभास हो जाता ? अर्थात्अतीन्द्रिय पूर्ण ज्ञान को हम पक्ष नहीं बना रहे हैं। अतः हमारा हेतु आश्रयासिद्ध नहीं है। ज्ञान सामान्य तो सिद्ध ही है। ... तुमने पक्ष कोटि में कौन सा ज्ञान ग्रहण किया है? इस प्रकार जिज्ञासा करने पर जैन कहते हैं कि यहाँ ज्ञान सामान्य पक्ष है। उस सामान्यज्ञान को सम्पूर्ण अर्थों के विषयीपने से परमप्रकर्ष की प्राप्ति को सामान्य रूप से साध्य करने पर सिद्ध साध्यता दोष नहीं आता है। क्योंकि विधि लिङन्त वेदवाक्यों द्वारा उत्पन्न आगम ज्ञान अथवा अनुमान, तर्क आदि ज्ञानों के प्रकर्षता को प्राप्त हो जाने पर भूत, भविष्यत् आदि पदार्थों को विषय कर लेना नहीं चाहने वाले नास्तिकवादी के प्रति पूर्वोक्त अनुमान का प्रयोग किया है। अर्थात् नास्तिकों के यहाँ सम्पूर्ण अर्थों को विषय करने वाला ज्ञान सिद्ध नहीं है। अत: अनुमान द्वारा असिद्ध साध्य को सिद्ध किया है। मीमांसकों के प्रति उस अनुमान का प्रयोग करने पर तो सिद्धसाधन दोष है ही क्योंकि “चोदना हि भूतं भवन्तं भविष्यन्तं विप्रकष्टमित्येवं जातीयकमर्थमवगमयितुमलं पुरुषविशेषान्" वेदवाक्यों से उत्पन्न हुआ ज्ञान अभ्यास बढ़ने से परमप्रकर्ष को प्राप्त होकर भूत, भविष्यत् आदि सम्पूर्ण पदार्थों को विषय कर