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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 44 स्वरूपासिद्धता हेतोराश्रयासिद्धतापि च / तन्नैतत्साधनं सम्यगिति केचित्प्रवादिनः // 27 // अत्र प्रचक्ष्महे ज्ञानसामान्यं धर्मि नापरम् / सर्वार्थगोचरत्वेन प्रकर्षं परमं व्रजेत् // 28 // इति साध्यसनिच्छन्तं भूतादिविषयं परं। चोदनाज्ञानमन्यद्वा वादिनं प्रति नास्तिकम् // 29 // न सिद्धसाध्यतैवं स्यान्नाप्रसिद्धविशेष्यता। पक्षस्य नापि दोषोऽय क्वचित् सत्यं प्रसिद्धता // 30 // स हेतोः क्वचित्प्रदर्शितः / नह्यत्राक्षविज्ञानं परमं प्रकर्ष यातीति साध्यते नापि लिङ्गागमादिविज्ञानं येन सिद्धसाध्यतानाम पक्षस्य दोषो दुःपरिहार: स्यात् / परस्यापीन्द्रियज्ञाने लिङ्गादिज्ञाने च परमप्रकर्षगमनस्येष्टत्वात्। भावार्थ - अक्रम और करणातीत परिपूर्ण विशद, इन तीन विशेषणों से सहित कोई विशेष्यभूतज्ञान आज तक भी प्रसिद्ध नहीं है। अतः हेतु विशेष्यासिद्ध है। और उक्त प्रकार मानने पर जैनों द्वारा कहा गया तरतम भाव से आक्रान्तपना हेतु स्वरूपासिद्ध हेत्वाभास है। क्योंकि वह हेतु वैसे पक्ष में रहता हुआ नहीं देखा जा रहा है। तथा तारतम्य से आरूढ़पना हेतु आश्रयासिद्ध हेत्वाभास भी है, क्योंकि इन्द्रियों की सहायता बिना ही उत्पन्न और युगपत् सबको परिस्फुट जानने वाला कोई ज्ञान जगत् में प्रसिद्ध ही नहीं है। अतः स्याद्वादियों का यह अधिरूढ़पना ज्ञापक हेतु समीचीन नहीं है। ऐसा कोई प्रवादी कहता है॥२६-२७॥ उक्त चार वार्तिकों द्वारा दिये गये दोषों के निराकरणार्थ श्री विद्यानन्दस्वामी उत्तर देते हैं कि अब इस प्रकरण में हम जैन सामान्यज्ञान को पक्ष कहते हैं, कोई दूसरा इन्द्रियज्ञान, अनुमानज्ञान, आगम या परिपूर्णज्ञान, पूर्वोक्त अनुमान पक्ष नहीं कहा गया है। वृद्धि को प्राप्त हुआ वह,सामान्य ज्ञान सम्पूर्ण अर्थों को विषय कर लेने पर परम प्रकर्ष को प्राप्त हो जाता है॥२८॥ इस प्रकार के साध्य को नास्तिकवादी वेद वाक्यों से उत्पन्न हुए ज्ञान को भूत, भविष्यत् कालवर्ती, दूरवर्ती या स्वभावविप्रकृष्ट पदार्थों को विषय करने वाला नहीं मानते हैं। तथा अन्य भी दूसरे ज्ञानों को भूत आदि पदार्थों को विषय करने वाला नहीं चाहता है। उस नास्तिकवादी के प्रति पूर्ण ज्ञान को सिद्ध करने वाला अनुमान प्रमाण कहा था। अतः हमारा हेतु पूर्णत: निर्दोष है।।२९॥ .. इस प्रकार ज्ञान सामान्य को पक्ष और सम्पूर्ण अर्थों को विषय कर लेने रूप परम प्रकर्ष प्राप्त ज्ञान को साध्य बनाकर अनुमान कर लेने पर सिद्धसाध्यता दोष नहीं आता है क्योंकि मीमांसकों के यहाँ हमारा कहा गया साध्य प्रसिद्ध नहीं है। हम इन्द्रियजन्यज्ञान को पक्ष नहीं बनाते हैं एवं पक्ष का अप्रसिद्ध विशेष्यता नामका यह दोष भी यहाँ नहीं आता है क्योंकि परिमाण के समान ज्ञान भी उत्तरोत्तर बढ़ता हुआ दीख रहा है। जीवों में अनेक भावनाज्ञान, प्रतिभाज्ञान दृष्टिगोचर हो रहे हैं। अत: जैनाचार्यों का हेतु स्वरूपासिद्ध और आश्रयासिद्ध भी नहीं है क्योंकि आत्मा में सत्यार्थरूप से इस प्रकार का ज्ञान प्रसिद्ध है॥३०॥ प्रतिवादी मीमांसक के यहाँ वह हेतु पक्ष में भी कहीं दिखला दिया गया है। अर्थात् - वेदशास्त्र द्वारा या व्याप्तिज्ञान से सम्पूर्ण पदार्थों को विषय कर लेना मीमांसकों ने भी माना है। केवल विशद का विवाद रह गया है। इस प्रकरण में जैनाचार्यों द्वारा इन्द्रियजन्य ज्ञान परमप्रकर्ष को प्राप्त हो जाता है, ऐसी प्रतिज्ञा
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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