________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 43 ज्ञानं प्रकर्षमायाति परमं क्वचिदात्मनि / तारतम्याधिरूढत्वादाकाशे परिमाणवत् // 23 // तारतम्याधिरूढत्वमसंशयप्राप्तत्वं तद्विज्ञानस्य सिद्ध्यत् क्वचिदात्मनि परमप्रकर्षप्राप्तिं साधयति, तया तस्य व्याप्तत्वात्परिमाणवदाकाशे॥ अत्र यद्यक्षविज्ञानं तस्य साध्यं प्रभाष्यते। सिद्धसाधनमेतत्स्यात्परस्याप्येवमिष्टितः॥२४॥ लिङ्गागमादिविज्ञानं ज्ञानसामान्यमेव वा। तथा साध्यं वदस्तेन दोषं परिहरेत्कथम् // 25 // अक्रमं करणातीतं यदि ज्ञानं परिस्फुटम् / धर्मीष्येत तदा पक्षस्याप्रसिद्धविशेष्यता // 26 // तरतमता से अधिरूढ़ होने से किसी एक आत्मा में निर्दोष उत्पन्न हुआ ज्ञान सबसे बड़े उत्कर्ष को प्राप्त हो जाता है, जैसे कि आकाश में परिमाण। अर्थात् घट, पट, गृह, ग्राम, नगर, पर्वत, समुद्र आदि में परिमा की तारतम्य से वद्धि होते-होते अनन्त आकाश में परम महा परिमाण परमप्रकर्ष को प्राप्त हो जाता है, उसी प्रकार विद्वानों में ज्ञानवृद्धि का तारतम्य देखा जाता है। अन्त में लोक-अलोक को जानने वाले सर्वज्ञदेव में सबसे बड़ा ज्ञान परिपूर्ण हो जाता है। इस प्रकार सर्वज्ञ को ज्ञान की सिद्धि हो जाती है॥२३॥ अर्थात् जिसमें हानि और वृद्धि देखी जाती है उसमें परम उत्कृष्ट हानि और परमोत्कृष्ट वृद्धि भी होती है। . किसी विवक्षित आत्मा में विज्ञान का तरतमरूप से आरूढ़ संशयरहित ज्ञान सिद्ध होता है। वह पक्ष में रहने वाला सिद्ध हेतु किसी आत्मारूप पक्ष में परम प्रकर्ष को प्राप्त हो जाने रूप साध्य को सिद्ध करता है, क्योंकि उस वृद्धि के तरतमपने को प्राप्त हेतु की उस परमप्रकर्ष प्राप्ति के साथ व्याप्ति है, जैसे कि आकाश में परमप्रकर्ष को प्राप्त हुआ परिमाण / यह दृष्टान्त प्रसिद्ध है। मीमांसक कहते हैं कि पूर्वोक्त अनुमान में जो ज्ञान पक्ष है, उस ज्ञानपद से यदि इन्द्रियों से जन्य विज्ञान लिया जाता है और उस इन्द्रियजन्य ज्ञान की परमप्रकर्ष प्राप्ति को साध्य बनाकर कथन किया जाता है तो सिद्धसाधन दोष आता है, क्योंकि मीमांसकों के यहाँ भी इस प्रकार इष्ट किया गया है कि स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, श्रोत्र और मन इन्द्रियों की विषय ग्रहण करने में यथायोग्य उत्कर्षता बढ़ते-बढ़ते परम अवस्था को पहुँच जाती है अर्थात् अभ्यासानुसार मानसज्ञान भी बढ़ता जाता है।॥२४॥ मीमांसक कहते हैं कि यदि ज्ञान पद से ज्ञापक लिंगजन्य अनुमानज्ञान, या आगमज्ञान, अर्थापत्ति आदि विज्ञान लिये जाते हैं अथवा जैनों द्वारा सामान्य रूप से कोई भी विज्ञान लिया जाता है तो इन अनुमान आदि ज्ञानरूप पक्ष में परमप्रकर्ष प्राप्तिरूप साध्य को कहने वाले जैन विद्वानों के द्वारा सिद्धसाधन दोष का निवारण कैसे किया जायेगा? अर्थात् अनुमान ज्ञान, आगमज्ञान आदि की परमप्रकर्षता सब ही वादी मानते हैं। अतः सिद्ध साधन दोष है॥२५॥ (कोई) प्रवादी मीमांसक कहते हैं कि ज्ञानपद से यदि इन्द्रियातीत क्रमरहित यानी युगपत् ही सम्पूर्ण पदार्थों को जानने वाला और ऐसा परिपूर्ण विशदज्ञान धर्म इष्ट किया जायेगा, तब तो पक्ष को अप्रसिद्ध विशेष्यता नामक दोष होगा।