________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक* 40 विनेयापेक्षया हेयमुपादेयं च किंचन। सोपायं यदि तेऽप्याहुस्तदोपेक्ष्यं न विद्यते॥११॥ निःश्रेयसं परं तावदुपेयं सम्मतं सताम् / हेयं जन्मजरामृत्युकीर्णं संसरणं सदा // 12 // अनयो: कारणं तत्स्याद्यदन्यत्तन्न विद्यते। पारंपर्येण साक्षाच्च वस्तूपेक्षं ततः किमु॥१३॥ द्वेषो हानमुपादानं रागस्तद्वयवर्जनं। ख्यातोपेक्षेति हेयाद्या भावास्तद्विषयादिमे // 14 // इति मोहाभिभूतानां व्यवस्था परिकल्प्यते / हेयत्वादिव्यवस्थानासम्भवात्कुत्रचित्तव // 15 // हातुं योग्यं मुमुक्षूणां हेयतत्त्वं व्यवस्थितं / उपादातुं पुनर्योग्यमुपादेयमितीयते // 16 // उपेक्षन्तु पुनः सर्वमुपादेयस्य कारणम् / सर्वोपेक्षास्वभावत्वाच्चारित्रस्य महात्मनः // 17 // तत्त्वश्रद्धानसंज्ञानगोचरत्वं यथा दधत् / तद्भाव्यमानमाम्नातममोघमघघातिभिः // 18 // “सर्वज्ञ की दृष्टि में कोई पदार्थ हेय और उपादेय नहीं है, किन्तु उपदेश प्राप्त करने योग्य विनयशाली शिष्यों की अपेक्षा से कोई त्यागने योग्य पदार्थ तो हेय हो जाते हैं और शिष्यों की दृष्टि से ग्रहण करने योग्य कोई पदार्थ उपादेय बन जाते हैं।" इस प्रकार उपाय सहित हेय, उपादेय तत्त्वों का जान लेना ही सर्वज्ञता के लिए पर्याप्त है। इस प्रकार मीमांसक के कहने पर जैनाचार्य कहते हैं कि यदि रागी, द्वेषी, शिष्यों की अपेक्षा से हेय, उपादेय तत्त्वों को जानना सर्वज्ञ के लिए आवश्यक बताया जायेगा तो जगत् में उपेक्षा का विषय कोई पदार्थ नहीं रहेगा। यहाँ परमात्म अवस्थास्वरूप उत्कृष्ट मोक्ष सज्जन पुरुषों के द्वारा उपादान करने योग्य माना गया है और सर्वदा जन्म, जरा और मृत्यु से व्याप्त यह संसार विद्वानों की सम्मति में हेय है। मोक्ष और संसार इन दोनों के कारण संवर, निर्जरा या मिथ्याज्ञान, कषाय, योग, स्त्री आदिक पदार्थ हैं; मोक्ष, संसार और उनके कारण इन तीन जाति के पदार्थों से भिन्न कोई भी पदार्थ विद्यमान नहीं है, जो कि उपेक्षा करने योग्य कहा गया है। जगत् के सम्पूर्ण भी पदार्थ परम्परा अथवा साक्षात् रूप से हेय और उपादेय तत्त्वों में गर्भित हो जाते हैं। अत: किस वस्तु को उपेक्षागोचर कहा जाए? // 11-12-13 // द्वेष हान (त्याज्य) है। राग उपादान (ग्राह्य) है और राग, द्वेष रहित अवस्था उपेक्षित कही गयी है। इस प्रकार हेय, उपादेय, उपेक्षणीय प्रकार के भाव जगत् में प्रसिद्ध हैं। उन आत्मीय परिणामों राग, द्वेष, उपेक्षा के विषय हो जाने से ये पदार्थ भी कहे जाते हैं। इस प्रकार मोहग्रस्त जीवों की व्यवस्था चारों ओर से कल्पित कर ली गई है। तदनुसार तुम मीमांसकों के यहाँ किसी भी एक विवक्षित पदार्थ में हेयपन आदि की व्यवस्था करना असम्भव है।।१४-१५।। वस्तुतः मोक्ष को चाहने वाले भव्य जीवों के त्याग करने योग्य पदार्थ तो हेयतत्त्व हैं और ग्रहण करने योग्य पदार्थ उपादेयरूप से व्यवस्थित हैं। इस प्रकार प्रतीति की जा रही है किन्तु फिर जीवनमुक्त हो जाने पर सम्पूर्ण पदार्थ भी उपेक्षा करने योग्य हो जाते हैं। उपादेय और हेय के कारण भी उपेक्षा करने योग्य हैं। क्योंकि महान् आत्मा वाले सर्वज्ञ के तदात्मक चारित्र गुण तो सम्पूर्ण पदार्थों में उपेक्षा स्वभाव वाला है॥१६-१७॥ तत्त्वार्थों का श्रद्धान रूप सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के विषयपने को धारण कर रहे वे पदार्थ यदि यथायोग्य वस्तु अनुसार भावना-चारित्र द्वारा भावे जाँय तो ज्ञानावरणादि पापकर्मों का नाश करने वाले ज्ञानी जीवों द्वारा अव्यर्थ माने गये हैं // 18 //