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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 41 मिथ्यादृग्बोधचारित्रगोचरत्वेन भावितम् / सर्वं हेयस्य तत्त्वस्य संसारस्यैव कारणं // 19 // तदवश्यं परिज्ञेयं तत्त्वार्थमनुशासता। विनेयानिति बोद्धव्यं धर्मवत्सकलं जगत् // 20 // धर्मादन्यत्परिज्ञानं विप्रकृष्टमशेषतः। येन तस्य कथं नाम धर्मज्ञत्वनिषेधनम् // 21 // सर्वानतींद्रियान् वेत्ति साक्षाद्धर्ममतीन्द्रियम्। प्रमातेति वदन्यायमतिक्रामति केवलं // 22 // यथैव हि हेयोपादेयतत्त्वं साभ्युपायं स वेत्ति न पुनः सर्वकीटसंख्यादिकमिति वदन्यायमतिक्रामति केवलं तत्संवेदने सर्वसंवेदनस्य न्यायप्राप्तत्वात्। तथा धर्मादन्यानती न्द्रियान्सर्वानान्विजानन्नपि धर्मं साक्षान्न स वेत्तीति वदन्नपि तत्साक्षात्करणे धर्मस्य साक्षात्करणसिद्धरतीन्द्रियत्वेन जात्यन्तरत्वाभावात्। यस्य यज्जातीयाः ___तथा मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र को विषय करके भावना किये गए सभी पदार्थ हेय हैं और हेयतत्त्व संसार के ही कारण हैं। अर्थात् इस अपेक्षा से सभी पदार्थ हेय हो गये। उपादेयों के लिए स्थान अवशिष्ट नहीं रहता है। मिथ्याज्ञान से जाने हुए उपायतत्त्व भी हेय हैं॥१९॥ अत: विनीत शिष्यों के प्रति तत्त्वार्थों की शिक्षा देने वाले सर्वज्ञ द्वारा सम्पूर्ण पदार्थ अवश्य ही चारों ओर से जान लेने योग्य हैं। इस प्रकार धर्म के प्रधान उपदेष्टा को उचित है कि वह धर्म, अधर्म के समान सम्पूर्ण जगत् को साक्षात् जान लेवे // 20 // जिस महात्मा ने धर्म के अतिरिक्त अन्य स्वभावव्यवहित परमाणु आदि और देशव्यवहित सुमेरु आदि तथा कालव्यवहित राम, रावण आदि विप्रकृष्ट पदार्थों को अशेष (परिपूर्ण) से जान लिया है, उस पुरुष के धर्म के ज्ञातापन का निषेध करना कैसे संभव हो सकता है? धर्म के सिवाय अन्य सम्पूर्ण पदार्थों को जो जानता है, वह धर्म को भी अवश्य जानता है। अतः सर्वज्ञ के लिए धर्म को जानने का निषेध करना मीमांसकों को उचित नहीं है॥२१॥ प्रमाणज्ञान करने वाली आत्मा सम्पूर्ण अतीन्द्रिय पदार्थों को प्रत्यक्षरूप से जानती है। केवल अतीन्द्रिय पुण्य, पापरूप धर्म, अधर्म को ही साक्षात् नहीं जानती है। "धर्मे चोदनैव प्रमाणं" - धर्म का निर्णयज्ञान करने में वेदवाक्य ही प्रमाण है। इस प्रकार कहने वाला मीमांसक केवल न्याय मार्ग का अतिक्रमण कर रहा है। अर्थात् जब न्याय की सामर्थ्य से उत्कृष्ट ज्ञान का स्वभाव सम्पूर्ण पदार्थों का जानना सिद्ध हो चुका है, तो फिर वह ज्ञान अतीन्द्रिय पदार्थों में से केवल धर्म को क्यों छोड़ देता है? // 22 // -- जिस प्रकार उपाय सहित केवल हेय और उपादेय को ही वह सर्वज्ञ जानता है, किन्तु फिर सम्पूर्ण कीड़े, कूड़े और उनकी गिनती, नाप-तौल आदि को वह (सर्वज्ञ) नहीं जानता है। उन उपादेय सहित हेय उपादेय तत्त्वों के भले प्रकार जान लेने पर सम्पूर्ण पदार्थों को जान लेना अपने आप न्याय से प्राप्त हो जाता है। ऐसा कहने वाला मीमांसक भी न्यायमार्ग का उल्लंघन कर रहा है। तथा धर्म के अतिरिक्त अन्य सम्पूर्ण अतीन्द्रिय पदार्थों को विशेषरूप से जानते हुए भी वह सर्वज्ञ धर्म को साक्षात्रूप से नहीं जान पाता है। ऐसा कहने वाले के भी उन सम्पूर्ण अतीन्द्रिय पदार्थों के प्रत्यक्ष कर लेने पर धर्म का प्रत्यक्ष कर लेना तो स्वतः
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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