________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक*३९ पर्यायेष्विति निर्देशादवयवस्य प्रतीतितः। सर्वथाभेदतत्त्वस्य यथेति प्रतिपादनात् // 5 // तस्मादनष्ठेयगतं ज्ञानमस्य विचार्यतां। कीटसंज्ञापरिज्ञानं तस्य नात्रोपयुज्यते॥६॥ इत्येतच्च व्यवच्छिन्नं सर्वशब्दप्रयोगतः। तदेकस्याप्यविज्ञाने क्वाथूणां शिष्यसाधनं // 7 // हेयोपादेयतत्त्वस्य साभ्युपायस्य वेदकं / सर्वज्ञतामितं निष्टं तज्ज्ञानं सर्वगोचरम् // 8 // उपेक्षणीयतत्त्वस्य हेयादिभिरसंग्रहात् / न ज्ञानं न पुनस्तेषां न ज्ञानेऽपीति केचन // 9 // तदसवीतरागाणामुपेक्षत्वेन निश्चयात् / सर्वार्थानां कृतार्थत्वात्तेषां क्वचिदवृत्तितः // 10 // से और अवयव की प्रतीति होने से निराकरण हो जाता है अत: तीनों काल सम्बन्धी पर्यायों में केवलज्ञान की प्रवृत्ति है। पूर्वकालवर्ती पर्यायों का समूलचूल नाश नहीं होता है। एक द्रव्य की कालत्रयवर्ती पर्यायों में अन्वय की प्रतीति होती है। पर्यायें कथंचित् भिन्न हैं और द्रव्य कथंचित् अभिन्न / सर्वथा भेदरूप अथवा अभेदरूप तत्त्व वास्तविक नहीं हो सकता है। इसका पूर्व प्रकरणों में प्रतिपादन किया है॥३-४-५॥ इन दो पदों की सफलता को दिखाकर अब सर्व शब्द की उपयोगिता का कथन करते हैं। कोई कहता है कि मोक्ष के उपयोगी अनुष्ठान करने योग्य (कुछ जीव, पुद्गल, बन्ध, बन्धकारण, मोक्ष, मोक्षकारण आदि) पदार्थों में ही इस सर्वज्ञ का ज्ञान होता है, इस सर्वज्ञ के कीट आदि के नाम निर्देश और उन निस्सार पदार्थों का परिज्ञान करना उपयोगी नहीं है, ऐसा जानना चाहिए। आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार किसी का यह कहना सूत्रोक्त सर्व शब्द के प्रयोग से खण्डित हो जाता है, क्योंकि उन सम्पूर्ण पदार्थों से किसी एक भी कीड़े, कचरे का विशेषज्ञान न होने पर परिपूर्ण रूप से शिष्यों के प्रति निर्दोष शिक्षा देना कैसे हो सकता है? // 6-7 // ... सर्वज्ञपन को प्राप्त विज्ञान केवल उपायों से सहित हेय और उपादेय तत्त्वों का ही ज्ञान करने वाला माना गया है। वह ज्ञान सम्पूर्ण अनन्तानन्त पदार्थों को विषय करने वाला इष्ट नहीं किया गया है अर्थात् हेय तत्त्व संसार और उसके उपाय आस्रवतत्त्व, बन्धतत्त्व तथा उपादान करने योग्य मोक्ष और उसके उपाय संवर, निर्जरा तत्त्वों का, अथवा इसी प्रकार के अन्य कतिपय अर्थों को ही सर्वज्ञ जानता है। उपेक्षा करने योग्य तत्त्वों का हेय आदि के द्वारा संग्रह नहीं हो सकता अत: उन उपेक्षा करने योग्य पदार्थों का फिर सर्वज्ञ को ज्ञान नहीं होता है। उन उपेक्षणीय पदार्थों का ज्ञान नहीं होने पर भी ज्ञान नहीं हुआ, ऐसा नहीं समझा जाता है; ऐसा कोई कहता है॥८-९॥ जैनाचार्य कहते हैं - इस प्रकार मीमांसक का कहना सत्यार्थ नहीं है, क्योंकि वीतराग सर्वज्ञ आत्माओं की दृष्टि में सम्पूर्ण पदार्थों का उपेक्षारूप से निश्चय हो जाता है अर्थात् सर्वज्ञ वीतराग देव किसी पदार्थ में रागी नहीं होने के कारण उनका उपादान नहीं करते हैं और किसी भी पदार्थ में द्वेष नहीं रखने के कारण उनका त्याग नहीं करते हैं। किन्तु सर्वज्ञ आत्माओं के सम्पूर्ण पदार्थों में उपेक्षाभाव है। केवलज्ञान का फल उपेक्षा करना है। शेष चार ज्ञान और तीन कुज्ञानों का फल अपने विषयों में उपादान बुद्धि और त्याग बुद्धि करा देना है। वे केवलज्ञानी सर्वज्ञ तो कृतकृत्य हैं अत: उनकी किसी भी पदार्थ में हान, उपादान करने के लिए निवृत्ति या प्रवृत्ति नहीं होती है इसलिए उपाय सहित कतिपय हेय और उपादेय तत्त्वों को ही जानने वाला सर्वज्ञ है। यह मीमांसकों का कथन प्रशंसनीय नहीं है।॥१०॥