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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 35 तच्छब्दोऽत्रावधिविषयं परामृशति न पुनरवधिं विषयप्रकरणात्। स च मुख्यस्य परामर्श्यते गौणस्य परामर्शे प्रयोजनाभावात्। मुख्यस्य परमावधिविषयस्य सर्वतो देशावधिविषयात्सूक्ष्मस्यानंतभागीकृतस्यानन्तो भागः सर्वावधिविषयस्तस्य सम्पूर्णेन मुख्येन सर्वावधिपरिच्छेद्यत्वात्। तत्रर्जुमतेर्निबन्धो बोद्धव्यस्तस्य मन:पर्ययप्रथमव्यक्तित्वात्सामर्थ्यादृजुमतिविषयस्यानन्तभागे विषये विपुलमतेर्निबन्धोऽवसीयते तस्य परमन:पर्ययत्वादसर्वपर्यायग्रहणानुवृत्तेर्नास्तीति नानाद्यनन्तपर्यायाक्रान्ते द्रव्ये मन:पर्ययस्य प्रवृत्तिस्तद्ज्ञानावरणक्षयोपशमासम्भवात्। अतीतानागतवर्तमानानन्तपर्यायात्मकवस्तुनः सकलज्ञानावरणक्षयविजूंभितकेवलज्ञानपरिच्छेद्यत्वात्। __इस सूत्र में कहा गया तत् शब्द अवधिज्ञान के विषय का परामर्श करता है? किन्तु अवधिज्ञान का तो परामर्श नहीं करता है, क्योंकि विषय का प्रकरण होने से, विषयभूत पदार्थों का ग्रहण होता है, विषयी ज्ञान का नहीं और वह विषय भी अवधिज्ञान में मुख्य सर्वावधि का परामर्श कर रहा है। अवधिज्ञानों में गौण देशावधि के विषय का पूर्व परामर्श करने में प्रयोजन का अभाव है। ___देशावधि के सम्पूर्ण विषयों से सूक्ष्म परमावधि का विषय है। उसके भी अनन्तवें भाग से भाजित एक अनन्तवाँ भाग सर्वावधिज्ञान का विषय है। उस सूक्ष्मभाग का सम्पूर्ण अवधियों में मुख्य सर्वावधिज्ञान द्वारा परिच्छेद किया गया है। उस सर्वावधि के विषय में या उसके अनन्तवें भाग द्रव्य में ऋजुमति मन:पर्ययज्ञान का नियम जघन्यरूप से समझना चाहिए क्योंकि मन:पर्यय ज्ञान का वह ऋजुमति पहिला व्यक्तिरूप भेद हैं। आर्ष आगम अनुसार सूत्र व्याख्यान की सामर्थ्य से यह अर्थ भी यहाँ निर्णीत हो जाता है कि ऋजुमति द्वारा जाने गए विषय के अनन्तवें भाग रूप विषय में विपुलमति ज्ञान की प्रवृत्ति होती है। वह विपुलमति मन:पर्यय ज्ञान का दूसरा भेद है जो कि मन:पर्ययज्ञानों में उत्कृष्ट है। अर्थात्- देशावधि का उत्कृष्ट द्रव्य कार्माण वर्गणा है। उसमें असंख्यात बार अनन्त संख्यावाले ध्रुवहारों का भाग देने पर परमावधि का द्रव्य निकल आता है और परमावधि के द्रव्य में अनेक बार अनन्त का भाग देने पर सर्वावधि का सूक्ष्म द्रव्य प्राप्त होता है। ये सब कार्मणद्रव्य में अनन्तानन्त भाग स्वविषय हैं। सर्वावधि से जान लिये गए द्रव्य में पुनः अनन्त का भाग देने पर ऋजुमति का द्रव्य निकलता है। ऋजुमति के द्रव्य में अनन्त का भाग देने पर विपुलमति का द्रव्य निकलता है। - “मतिश्रुतयोर्निबन्धो द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु" इस सूत्र में से असर्वपर्याय शब्द के ग्रहण की अनुवृत्ति कर लेने से अनादि अनन्तपर्यायों से व्याप्त द्रव्य में मन:पर्ययज्ञान की प्रवृत्ति नहीं है, यह ध्वनित हो जाता है। क्योंकि, उन अनादि अनन्त पर्यायों के ज्ञान को आवरण करने वाले कर्मों का क्षयोपशम होना असम्भव है। ज्ञानावरण का उदय रहने पर छद्मस्थ जीवों के अनादि अनन्त पर्यायों का ज्ञान नहीं हो सकता है। अतीतकाल, भविष्यकाल और वर्तमान काल की अनन्तानन्त पर्यायों के साथ तदात्मक वस्तु का परिच्छेद सम्पूर्ण ज्ञानावरण कर्मों के क्षय से उत्पन्न केवलज्ञान द्वारा किया जाता है। अत: वस्तु की कतिपय पर्यायों को ही मन:पर्ययज्ञान जान सकता है, अनन्तपर्यायों को नहीं।
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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