________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 33 शरीरपरिमाणानुविधायिनस्तस्य प्रसाधनात् / स्पर्शादिमूर्तिरित्यस्मिंस्तु पक्षे रूपं पुद्गलसामान्यगुणस्तेन स्पर्शादिरूपं लक्ष्यते इति तद्योगाद्र्व्याणि रूपीणि मूर्तिमन्ति कथितानि भवन्त्येव तथेह द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु इति निबन्ध इति चानुवर्तते / तेनेदमुक्तं भवति मूर्तिमत्सु द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु विषयेषु अवधेर्निबन्ध इति / कुत एवं नान्यथेत्याह स्वशक्तिवशतोऽसर्वपर्यायेष्वेव वर्त्तनम् / तस्य नानागतातीतानन्तपर्याययोगिषु // 4 // पुद्गलेषु तथाकाशादिष्वमूर्तेषु जातुचित् / इति युक्तं सुनिर्णीतासम्भवद्वाधकत्वतः // 5 // अत्रासर्वपर्यायरूपिद्रव्यज्ञानावरणक्षयोपशमविशेषावधेः स्वशक्तिस्तद्वशात्तस्यासर्वपर्यायेष्वेव पुद्गलेषु वृत्ति तीताद्यनन्तपर्यायेषु नाप्यमूर्तेष्वाकाशादिषु इति युक्तमुत्पश्यामः। सुनिर्णीतासम्भवद्बाधकत्वान्मतिश्रुतयोर्निबन्धो द्रव्येष्वसर्वपर्यायेष्वित्यादिवत् / / द्वितीय कल्पनानुसार स्पर्श आदि गुण मूर्त हैं। इस प्रकार के पक्ष का ग्रहण करने पर तो अभीष्ट अर्थ सिद्ध हो जाता है। क्योंकि पुद्गल द्रव्य का सामान्य गुण रूप है। उस रूप के द्वारा स्पर्श, रस आदि गुणों का उपलक्षण कर लिया जाता है अत: उस रूप के योग से रूपवाले द्रव्य मत्वर्थीय प्रत्यय द्वारा मूर्ति वाले कह दिए जाते हैं। इसलिए पूर्व सूत्रों से "द्रव्येषु" "असर्वपर्यायेषु", "विषयेषु" ये शब्द और 'निबन्ध' इस प्रकार चार शब्दों की अनुवृत्ति कर लेनी चाहिए। इन शब्दों द्वारा इस वाक्यार्थ का ज्ञान हो जाता है कि मूर्त्तिमान द्रव्य और कतिपय पर्याय स्वरूप विषयों में अवधिज्ञान का नियम है। अर्थात् मूर्तिमान् द्रव्यों और उनकी थोड़ी सी पर्यायों में अवधिज्ञान का विषय नियत है। .. अवधिज्ञान का विषय रूपी पदार्थ ही है, अन्य नहीं। ऐसा नियम कैसे हो सकता है? उसी को आचार्य कहते हैं - अपनी शक्ति के कारण अवधिज्ञान की प्रवृत्ति रूपीद्रव्य और उनकी कतिपय पर्यायों में ही है। भविष्यत् और भूतकाल की अनन्त पर्यायों के सम्बन्ध वाले पुद्गलद्रव्यों में उस अवधिज्ञान की प्रवृत्ति नहीं है तथा आकाश आदि अमर्त द्रव्यों में कभी भी अवधिज्ञान की प्रवत्ति नहीं है। अमर्त द्रव्यों की पर्यायों में तो अवधिज्ञान की वर्तना असम्भव है। यह सिद्धान्त युक्तिपूर्ण है, क्योंकि इसमें बाधक प्रमाणों का अभाव सुनिश्चित है॥४-५॥ यहाँ प्रकरण में असर्व पर्याय वाले रूपी द्रव्यों के ज्ञान का आवरण करने वाले अवधिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम विशेष को ही अवधिज्ञान की निजशक्ति माना गया है। उस शक्ति के कारण उस अवधिज्ञान की असम्पूर्ण पर्याय वाले ही पुद्गलों में प्रवृत्ति होती है। भूत, भविष्यत् और वर्तमान काल की अनन्तपर्यायों वाले पुद्गलों में अवधिज्ञान प्रवृत्ति नहीं कर सकता है तथा आकाश आदि अमूर्त द्रव्यों को भी अवधिज्ञान नहीं जानता है। इस स्थापना को हम समुचित समझ रहे हैं क्योंकि, इस सिद्धान्त में आने वाली बाधाओं की असम्भवता का निर्णय हो चुका है। जिस प्रकार मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का विषयनिबन्ध सम्पूर्ण द्रव्य और उनकी कतिपय पर्यायों में सुनिश्चित है, निर्णीत सिद्धान्तों के समान 'रूपिष्ववधेः' इस सूत्र का चार पदों की अनुवृत्ति करके अर्थ करना चाहिए। . अर्थात् अवधिज्ञान मूर्तिक पुद्गल द्रव्य की कुछ पर्यायों को जानता है, पुद्गल द्रव्य की सारी पर्यायें और अमूर्तिक आकाशादि द्रव्यों को नहीं जानता है परन्तु पुद्गल द्रव्य-कार्माण वर्गणाओं से युक्त संसारी जीवों की कुछ पर्यायों को जान सकता है।