________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 32 रूपिष्ववधेः // 27 // किमर्थमिदं सूत्रमित्याहप्रत्यक्षस्यावधे: केषु विषयेषु निबन्धनम् / इति निर्णीतये प्राह रूपिष्वित्यादिकं वचः॥१॥ रूपं पुद्गलसामान्यगुणस्तेनोपलक्ष्यते। स्पर्शादिरिति तद्योगात् रूपिणीति विनिश्चयः // 2 // तेष्वेव नियमोऽसर्वपर्यायेष्ववधेः स्फुटम् / द्रव्येषु विषयेष्वेवमनुवृत्तिर्विधीयते // 3 // रूपं मूर्तिरित्येके, तेषामसर्वगतद्रव्यपरिमाणं मूर्तिः स्पर्शादिर्वा मूर्तिरिति मतं स्यात्। प्रथमपक्षे जीवस्यरूपित्वप्रसक्तिरसर्वगतद्रव्यपरिमाणलक्षणाया मूर्तस्तत्र भावात्। सर्वगतत्वादात्मनस्तद्भाव इति चेन्न अवधिज्ञान के विषय को बताने के लिए आचार्य सूत्र कहते हैं - रूपवान पदार्थों में अवधिज्ञान का विषय नियमित है। अर्थात् धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन अमूर्त द्रव्यों को छोड़कर पुद्गल के साथ बन्ध को प्राप्त मूर्त जीव द्रव्य और पुद्गल द्रव्य तथा इन दो द्रव्यों की कतिपय पर्यायों में अवधिज्ञान की प्रवृत्ति नियत है // 27 // किस प्रयोजन की सिद्धि के लिए यह सूत्र कहा है? ऐसी जिज्ञासा होने पर आचार्य कहते हैं तीसरे प्रत्यक्ष ज्ञान स्वरूप अवधि का किन विषयों में नियम है? इसका निर्णय करने के लिए “रूपिष्ववधेः" इस प्रकार सूत्र वचन को कहा है। अर्थात् इस सूत्र के कहे बिना अवधिज्ञान के विषय का नियम नहीं हो सकता॥१॥ रूप पुद्गल का सामान्य गुण है अत: उस रूप के कथन से स्पर्श, रस आदि भी पुद्गल के गुण उपलक्षण से ग्रहण हो जाते हैं। इसलिए रूप, रस आदि के योग से पुद्गल रूपी है, ऐसा निश्चय होता है / / 2 / / उन रूप वाले द्रव्यों में ही और उनकी अल्प पर्यायों में ही अवधिज्ञान का विषय नियम स्पष्ट रूप से विशद है। इस सूत्र में पूर्व सूत्र से 'द्रव्येषु' और 'असर्वपर्यायेषु' तथा पूर्व सूत्र से 'विषयेषु' इस प्रकार तीन पदों की अनुवृत्ति कर ली जाती है, 'निबन्धः' यह पद भी चला आ रहा है अतः अवधिज्ञान का विषयनिबन्ध रूपी द्रव्यों में और उनकी असर्वपर्यायों में ही है, यह वाक्यार्थ होता है।।३।। ___ कोई कहते हैं कि रूप शब्द का अर्थ मूर्ति है। इस पर जैन पूछते हैं कि उन विद्वानों के यहाँ क्या अव्यापक द्रव्यों के परिणाम को मूर्ति माना है? अथवा स्पर्श आदि गुण ही मूर्ति है? यह मन्तव्य है। प्रथम पक्ष ग्रहण करने पर तो जीव द्रव्य को भी रूपीपने का प्रसंग आयेगा क्योंकि अव्यापक द्रव्य के परिणामस्वरूप मूर्ति का उस जीव द्रव्य में सद्भाव पाया जाता है। सर्वत्र व्यापक होने के कारण आत्मद्रव्य के उस अव्यापक द्रव्यपरिणामस्वरूप मूर्ति का अभाव है। अर्थात् सर्वगत आत्मा अमूर्त है ऐसा कहना उचित नहीं है, क्योंकि प्रत्येक आत्मा अपने शरीर प्रमाण रहती है, यह सिद्ध कर दिया गया है। प्रत्येक जीव की आत्मा उसके शरीर बराबर होती हुई अव्यापक द्रव्य है, व्यापक नहीं है।