________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 31 ननु च यदि द्रव्याण्यनंतपर्यायाणि वस्तुत्वं बिभ्रति तदा मतिश्रुताभ्यां तद्विषयाभ्यां भवितव्यमन्यथा तयोरवस्तुविषयत्वापत्तेरिति न चोद्यं, तथा योग्यतापायात्। न हि वस्तु सत्तामात्रेण ज्ञानविषयत्वमुपयाति / सर्वस्य सर्वदा सर्वपुरुषज्ञानविषयत्वप्रसङ्गात्। किं तर्हि वस्तुनः परिच्छित्तौ कारणमित्याह ज्ञानस्यार्थपरिच्छित्तौ कारणं नान्यदीक्ष्यते। योग्यतायास्तदुत्पत्तिः सारूप्यादिषु सत्स्वपि // 21 // यस्मादुत्पद्यते ज्ञानं येन च सरूपं तस्य ग्राहकमित्ययुक्तं, समानार्थसमनन्तरप्रत्ययस्य तेनाग्रहणात् / तद्ग्रहणयोग्यतापायात्तस्याग्रहणे योग्यतैव विषयग्रहणनिमित्तं वेदनस्येत्यायातम् / योग्यता पुनर्वेदनस्य स्वावरणविच्छेदविशेष एवेत्युक्तप्रायम्॥ शंका - अनन्त पर्याय वाले द्रव्य यदि वस्तुत्व को धारण करते हैं तो मतिज्ञान-श्रुतज्ञान के द्वारा उन सम्पूर्ण अनन्तपर्यायों को विषय कर लेना चाहिए। अन्यथा उन दोनों ज्ञानों के अवस्तु के विषय कर लेने का प्रसंग आयेगा। समाधान - आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार का कुचोद्य करना अच्छा नहीं है, क्योंकि इस प्रकार अनन्तपर्यायों अथवा सम्पूर्ण पर्यायों के जानने की योग्यता का मति श्रुत दोनों ज्ञानों में अभाव है। क्योंकि केवल जगत् में सद्भाव हो जाने से ही कोई वस्तु ज्ञान के विषयपने को प्राप्त नहीं होती है। यदि जगत् में पदार्थ विद्यमान है, इतने मात्र से ज्ञान का विषय होना मानने पर तो सर्व पदार्थों का सदा ही सम्पूर्ण जीवों के ज्ञान में विषय हो जाने का प्रसंग आएगा। वस्तु की यथार्थ ज्ञप्ति करने में क्या कारण है? इस प्रकार जिज्ञासा होने पर आचार्य कहते हैं बौद्धों द्वारा माने गये ज्ञान का विषय के प्रति नियम करने में तदुत्पत्ति, तदाकारता, तदध्यवसाय आदि के होने पर भी योग्यता के अतिरिक्त अन्य कोई कारण अर्थ की परिच्छित्ति करने में नहीं दिख रहा है। अर्थात् ज्ञान की उत्पत्ति में पदार्थ कारण नहीं है, न तदाकार कारण है और न ही अर्थ का अध्यवसाय कारण है अपितु ज्ञान की उत्पत्ति में कारण है - ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम रूप योग्यता, अर्थग्रहण करने की व्याप्ति // 21 // जिस कारण से ज्ञान उत्पन्न होता है और जिसके समानरूप प्रतिबिम्ब को ले लेता है, वह ज्ञान उसका ग्राहक है, इस प्रकार बौद्धों का कहना युक्ति रहित है। क्योंकि दोनों कारणों के रहते हुए भी समान अर्थ के समनन्तर प्रत्यय का उस दूसरे उत्तरवर्ती ज्ञान के द्वारा ग्रहण नहीं होता है जबकि पूर्ववर्ती ज्ञान से दूसरा ज्ञान उत्पन्न हुआ है और पूर्व ज्ञान का उत्तर ज्ञान में आकार भी पड़ा हुआ है, फिर वह उत्तरवर्ती ज्ञान पूर्वज्ञान को विषय क्यों नहीं करता है? उस पूर्वज्ञान के ग्रहण करने की योग्यता नहीं होने से उत्तरज्ञान द्वारा उसका ग्रहण नहीं होता है, ऐसा मानने पर तो सर्वत्र ज्ञान के द्वारा विषय के ग्रहण होने में निमित्तकारण या नियमकी योग्यता ही है, यह सिद्धान्त सिद्ध होता है और ज्ञान की योग्यता अपने आवरण करने वाले कर्मों का क्षयोपशमविशेष ही है। इस बात को पूर्व प्रकरण में कह चुके हैं। अत: ज्ञानावरण कर्मों का विशेषरूप से क्षय हो जाने स्वरूप योग्यता के नहीं होने पर मतिज्ञान और श्रुतज्ञान अनन्तपर्यायों को नहीं जान सकते हैं /