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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 28 नयेन व्यभिचारश्नेन्न तस्य गुणभावतः। स्वगोचरार्थधर्माण्यधर्मार्थप्रकाशनात् // 17 // श्रुतस्यावस्तुवेदित्वे परप्रत्यायनं कुतः। संवृतेश्चद्वथैवैषा परमार्थस्य निश्चितेः॥१८॥ ननु स्वत एव परमार्थव्यवस्थितेः कुतश्चिदविद्याप्रक्षयान्न पुनः श्रुतविकल्पात् तदुक्तं “शास्त्रेषु प्रक्रियाभेदैरविद्यैवोपवर्ण्यते / अनागमविकल्पा हि स्वयं विद्योपवर्त्तत' इति तदयुक्तं , परेष्टतत्त्वस्याप्रत्यक्षविषयत्वा-त्तद्विपरीतस्यानेकान्तात्मनो वस्तुनः सर्वदा परस्याप्यवभासनात्। लिङ्गस्य त्वस्याङ्गीकरणीयत्वात् / न च तत्र लिंगं वास्तवमस्ति तस्य साध्याविनाभावित्वेन प्रत्यक्षत एव प्रश्न - ऊपर कहे गए अनुमान में दिये गये समीचीन ज्ञानपन हेतु का नय के द्वारा व्यभिचार आता है, क्योंकि नयज्ञान समीचीन ज्ञान तो है किन्तु वह अनेकान्त वस्तु को प्रकाशित नहीं करता है अर्थात् अनेकान्त को जानने वाला ज्ञान प्रमाण ज्ञान है, नय एकान्त है। उत्तर - ऐसा नहीं कहना क्योंकि उस नय ज्ञान को अपने विषयभूत अर्थ धर्म से अतिरिक्तं धर्मीरूप अर्थ को प्रकाशित कराना गौण रूप से मान लिया गया है अतः नय से व्यभिचार दोष नहीं आता है। सुनयज्ञान अन्य धर्मों का निषेधक नहीं है॥१७॥ अर्थात् प्रमाणज्ञान मुख्य रूप से अनेक धर्मात्मक वस्तु को जानता है और नय ज्ञान मुख्य रूप से वस्तु के एक धर्म का कथन करता है परन्तु गौण रूप से वस्तु के अन्य धर्मों या धर्मी को भी जानता है। श्रुतज्ञान को वस्तुभूत पदार्थ का ज्ञापक नहीं मानकर अवस्तुवादी माना जायेगा तो दूसरे प्रतिवादी या शिष्यों को स्वकीय तत्त्वों का किस उपाय से ज्ञान कराया जाएगा। संवृत्ति (लौकिक व्यवहार की अपेक्षा) से श्रुतज्ञान द्वारा दूसरों का समझाना मान लेने पर हम कहेंगे कि यह संवृत्ति तो वृथा है। जो संवृत्ति झूठी है, अनिश्चित है, वृथा है, कल्पनारूप है, उससे परमार्थ वस्तु का निश्चय कैसे हो सकताहै? किन्तु शास्त्रों द्वारा परमार्थ का निश्चय हो रहा है। दूसरों का ठीक समझना भी हो रहा है अतः वस्तु को जानने वाला श्रुतज्ञान प्रमाण है।॥१८॥ शंका - परमार्थभूत पदार्थ की व्यवस्था तो “किसी भी अनिर्वचनीय कारण से अविद्या का प्रकृष्ट क्षय हो जाने पर स्वतः ही हो जाती है, किन्तु विकल्परूप मिथ्या श्रुतज्ञान से वस्तुभूत अर्थ की व्यवस्था नहीं हो पाती है। बौद्धों के ग्रन्थों में कहा गया है कि शास्त्रों में भिन्न-भिन्न प्रक्रिया द्वारा अविद्या ही कही जाती है। क्योंकि शब्द वस्तुभूत अर्थ को नही छूते हैं। स्वयं सम्यग्ज्ञानरूप विद्या तो आगमस्वरूप निर्विषय विकल्पज्ञानों के गोचर नहीं होती है अपितु विद्या स्वयं ही अनागम अविकल्प रूप से प्रवृत्त होती है। इस प्रकार बौद्धों का कहना अयुक्त है, क्योंकि दूसरे बौद्धों के यहाँ इष्ट तत्त्वों का प्रत्यक्ष ज्ञान के द्वारा अगोचर होने से बौद्धों को इष्ट क्षणिक विज्ञान आदि तत्त्वों से विपरीत अनेकान्तात्मक वस्तु का ही सर्वदा प्रत्यक्ष द्वारा प्रतिभास होता है अतः प्रत्यक्ष की प्रवृत्ति नहीं होने पर अपने अभीष्ट तत्त्व की ज्ञप्ति कराने के लिए लिंग को अवश्य स्वीकारना चाहिए। किन्तु उस इष्ट तत्त्व को साधने में तुम्हारे पास कोई वस्तुभूत ज्ञापक लिंग नहीं है क्योंकि इस हेतु की अपने साध्य के साथ अविनाभावीपन करके प्रत्यक्ष प्रमाण से प्रतिपत्ति नहीं
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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