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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 29 प्रतिपत्तुमशक्तेरनुमानान्तरात् प्रतिपत्तावनवस्थाप्रसंगात्, प्रवचनादपि नेष्टतत्त्वव्यवस्थितिः तस्य तद्विषयत्वायोगादिति कथमपि तद्गतेरभावात् स्वतस्तत्त्वावभासनासम्भवात् / तथा चोक्तं। “प्रत्यक्षबुद्धिः क्रमते न यत्र तल्लिङ्गगम्यं न तदर्थलिङ्गं / वाचो न वा तद्विषये न योग: का तद्गतिः कष्टमसृज्यतान्ते // " इति। तत एव वेद्यवेदकभावः प्रतिपाद्यप्रतिपादकभावो वा न परमार्थतः किन्तु संवृत्यैवेति चेत्, तदिह महाधाष्ट्यं येनाय विष्टिकमपि जयेत् / तथोक्तं / “संवृत्या साधयंस्तत्त्वं जयेद्धार्चेन डिंडिकं / मत्या मत्तविलासिन्या राजविप्रोपदेशिनं // " इति। कथं वा संवृत्यसंवृत्योः विभागं बुद्ध्येत्? संवृत्येति चेत्, सा चानिश्चिता तयैव किञ्चिनिश्चिनोतीति कथमनुन्मत्तः, सुदूरमपि गत्वा स्वयं किञ्चिनिश्चिन्वन् परं च निश्चाययन्वेद्यवेदकभावं प्रतिपाद्यप्रतिपादक भावं च परमार्थतः स्वीकर्तुमर्हत्येव, अन्यथोपेक्षणीयत्वप्रसंगात् / तथा च वस्तुविषयमध्यक्षमिव श्रुतं सिद्धं सद्बोधवत्त्वान्यथानुपपत्तेः। तर्हि द्रव्येष्वेव मतिश्रुतयोर्निबंधोस्तु तेषामेव वस्तुत्वात् पर्यायाणां परिकल्पितत्वात् पर्यायेष्वेव वा द्रव्यस्यावस्तुत्वादिति च मन्यमानं प्रत्याहकी जा सकती है। अर्थात् व्याप्ति ज्ञान तो विचारक है, उसको बौद्ध प्रमाण नहीं मानते हैं। जो-जो धूमवान् प्रदेश हैं वे-वे अग्निमान हैं, इतने विचारों को विचार करने के लिए प्रत्यक्ष कैसे भी समर्थ नहीं हो सकता है। यदि साध्य के साथ अविनाभावीपन की प्रतिपत्ति दूसरे अनुमान से की जाएगी तो उस अनुमान के उदय में भी व्याप्ति की आवश्यकता पड़ेगी। फिर भी व्याप्ति जानने के लिए अन्य-अन्य अनुमानों की शरण में जाने से अनवस्था दोष आ जाने का प्रसंग आता है। बौद्धों के इष्टतत्त्वों की व्यवस्था प्रवचन से भी नहीं . हो सकती है, क्योंकि आपके मत में आगम को उन इष्ट पदार्थों के विषय करने का अयोग है। इस प्रकार बौद्ध मत में उस इष्ट तत्त्व का ज्ञान कैसे भी नहीं हो सकता है। उन तत्त्वों का स्वत: प्रकाश होना तो असम्भव है। बौद्धों के ग्रन्थों में भी कहा है कि तत्त्व में प्रत्यक्षज्ञान प्रवृत्ति नहीं करता है और जो तत्त्व ज्ञापक हेतुओं के द्वारा जानने योग्य नहीं है उसको जानने के लिए कोई ज्ञापक हेतु अभीष्ट नहीं है; तथा अपने इष्ट विषयों में वाचक शब्दों का वाच्यवाचक सम्बन्ध भी नहीं है। अत: आगम द्वारा भी इष्ट तत्त्व नहीं जाना जाता है। इस प्रकार प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम इन प्रमाणों के गोचर नहीं होने से इष्ट तत्त्वों की क्या गति होगी? अतीन्द्रिय अर्थों का शास्त्र द्वारा श्रवण नहीं होना मानने वाले बौद्धों की दयनीय दशा पर कष्ट उत्पन्न होता वस्तुत: वेद्यवेदक भाव अथवा प्रतिपाद्य प्रतिपादक भाव ही नहीं है। किन्तु लौकिक व्यवहार से ही ज्ञेयज्ञायक भाव और प्रतिपाद्य प्रतिपादक भाव जगत् में कल्पित कर लिये गये हैं। इस प्रकार बौद्धों के कहने पर जैनाचार्य कहते हैं कि इस प्रकरण में इस प्रकार कहना बड़ी भारी हठधर्मिता है। जिस दुराग्रह से यह बौद्ध महानिर्लज्ज हँसी करने वाले भांडों को भी जीत लेगा, उसी प्रकार ग्रन्थों में भी लिखा हुआ है कि झूठे व्यवहार से तत्त्वों को सिद्ध करने वाला बौद्ध अपनी धीठता से विदूषक या भांड अथवा डोंडीवाले को भी जीत लेगा। जो डिंडिक मदोन्मत्त विलास करने वाली बुद्धि से बड़े भारी विद्वान राजपुरोहित को भी उपदेश सुनाता रहता है। इस प्रकार उपहास और भर्त्सना से बौद्धों के नि:सार मत का कथन किया है। ____तथा विज्ञानाद्वैतवादी बौद्ध संवृत्ति (व्यवहार सत्य) और असंवृत्ति (मुख्य सत्य) पदार्थों के विभाग को कैसे समझ सकेगा? क्योंकि अद्वैत में संवृत्ति और असंवृत्ति का विभाग नहीं हो सकता।
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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