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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 27 ततः स्वरूपसिद्धिमिच्छता सत्येतरस्थितिरङ्गीकर्तव्या साध्यसाधनत्वादिरपि स्वीकरणीय इति बाह्यार्थालम्बनाः प्रत्ययाः केचित्सन्त्येव, सर्वथा तेषां निरालम्बनत्वस्य व्यवस्थानायोगात्॥ अक्षज्ञानं बहिर्वस्तु वेत्ति न स्मरणादिकं / इत्युक्तं तु प्रमाणेन बाह्यार्थस्यास्य साधनात् // 14 // श्रुतं तु बाह्यार्थालम्बनं / कथमित्युच्यतेश्रुतेनार्थं परिच्छिद्य वर्तमानो न बाध्यते / अक्षजेनेव तत्तस्य बाह्यार्थालंबना स्थितिः॥१५॥ सामान्यमेव श्रुतं प्रकाशयति विशेषमेव परस्परनिरपेक्षमुभयमेवेति वा शंकामपाकरोतिअनेकान्तात्मकं वस्तु संप्रकाशयति श्रुतं / सद्बोधत्वाद्यथाक्षोत्थबोध इत्युपपत्तिमत् // 16 // इसलिए संवेदन के स्वरूप को सिद्धि को चाहने वाले बौद्धों के द्वारा सत्यपन और असत्यपन की व्यवस्था स्वीकार की जानी चाहिए तथा संवेदन को साध्यपना और प्रतिभासमानत्व को साधनपना, पूर्व पर्याय को कारणपना और उत्तर पर्याय को कार्यपना या अद्वैत को बाध्यपना और द्वैत को बाधकपना आदि भी स्वीकार करने चाहिए। इस प्रकार मानने पर कोई ज्ञान बहिरंग अर्थों को भी विषय करने वाले हैं ही। उन घट ज्ञान आदि प्रत्ययों का सर्वथा निरालम्बपने की व्यवस्था करने का तुम्हारे पास कोई समीचीन व्यवस्था का योग नहीं है। ___इन्द्रियों से उत्पन्न हुए ज्ञान तो बहिरंग पदार्थों को जानते हैं किन्तु स्मरण, प्रत्यभिज्ञान, श्रुतज्ञान आदि बहिरंग पदार्थों को नहीं जानते हैं इस प्रकार कहना भी युक्तियों से रहित है, क्योंकि प्रमाणों के द्वारा इस बहिर्भूत अर्थ की सिद्धि की जा चुकी है। अर्थात् उन वास्तविक बाह्य अर्थों को विषय करने वाले सभी समीचीन मतिज्ञान और श्रुतज्ञान हैं; जो ज्ञान विषयों को स्पर्श नहीं करते वे मतिज्ञानाभास और श्रुतज्ञानाभास हैं॥१४॥ श्रुतज्ञान बाह्य अर्थों को विषय करने वाला कैसे है? इस प्रकार जिज्ञासा होने पर कहते हैं - .. श्रुतज्ञान के द्वारा अर्थ की परिच्छित्ति कर प्रवृत्ति करने वाला पुरुष अर्थक्रिया करने में उसी तरह बाधा को प्राप्त नहीं होता है, जैसे इन्द्रियजन्य मतिज्ञान के द्वारा अर्थ को जानकर प्रवृत्ति करने वाला पुरुष बाधा को प्राप्त नहीं होता। अत: उस श्रुतज्ञान के बहिरंग अर्थों के आलम्बन करने की व्यवस्था बन जाती है॥१५॥ मीमांसक कहते हैं कि श्रुतज्ञान केवल सामान्य को ही प्रकाशित करता है। बौद्धों का एकान्त है कि 'विशेषा एव तत्त्वं' सभी पदार्थ विशेषस्वरूप हैं, सामान्य कोई वस्तुभूत नहीं है, अतः श्रुतज्ञान विशेष को ही जानता है। वैशेषिकों नैयायिकों का यह कहना है कि परस्पर में एक दूसरे की अपेक्षा नहीं करते हुए पृथक्-पृथक् सामान्य और विशेष दोनों को ही श्रुतज्ञान विषय करता है। इस प्रकार एकान्तवादियों की आशंकाओं का श्री विद्यानन्द स्वामी निराकरण करते हैं जिस प्रकार समीचीन ज्ञान होने से इन्द्रियों से उत्पन्न हुआ सांव्यवहारिक प्रत्यक्षज्ञान अनेकान्तात्मक अर्थ को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार सामान्य और विशेषरूप अनेक धर्मों के साथ तदात्मक वस्तु को श्रुतज्ञान प्रकाशित करता है। इस प्रकार वह श्रुतज्ञान सामान्य विशेषात्मक वस्तु को प्रकाशित करता है यह युक्तियों से युक्त है॥१६॥
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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