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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 26 तत एव संवेदनमेकं स्वपररूपविधिप्रतिषेधविषयं माभूत्स्वापेक्षाविधायकं परापेक्षया प्रतिषेधकमित्यविरोधे स्वकार्यापेक्षया कारणं स्वकारणापेक्षया कार्यमित्यविरोधोऽस्तु। अथ स्वतोऽन्यस्य कार्यस्य कारणस्य वा साध्यस्य साधकस्य वा सद्भावासिद्धेः कथं तदपेक्षा यतस्तत्कार्यं कारणं बाध्यं बाधकं च साध्यं साधनं च स्यादिति ब्रूते तर्हि परस्य सद्भावासिद्धेः कथं तदपेक्षा यतस्तत्परस्य प्रतिषेधकं स्वविधायकं वा स्यादित्युपहासास्पदं तत्त्वं सुगतेन भावितमित्याह न साध्यसाधनत्वादिर्न च सत्येतरस्थितिः। ते स्वसिद्धिरपीत्येतत्तत्त्वं सुगतभावितम् / / 13 / / बाधक भाव भी एक हो सकता ह। ऐसे ही आधार-आधेय, गुरु-शिष्य, विषय-विषयी आदि भी अपेक्षाओं से एक-एक ही पदार्थ सिद्ध हो जाते हैं। विरुद्ध धर्मों से आलीढ़ हो जाने के कारण एक ही पदार्थ साध्य और साधन अथवा कार्य और कारण आदि नहीं हो सकता है। इस प्रकार बौद्धों के कहने पर हम कहेंगे कि तो फिर एक संवेदन भी स्वरूप की विधि और पर-रूप के निषेध को विषय करने वाला नहीं हो सकता। इसमें भी तो संवेदन में विधायकपन और निषेधकपन दो विरुद्ध धर्म हैं। यदि बौद्ध कहें कि स्वरूप की अपेक्षा विधायकपना और पररूप की अपेक्षा निषेधकपना इन दो धर्मों को मानने पर कोई विरोध नहीं है। तब तो हम अनेकान्तवादी भी कह देंगे कि अपने कार्यों की अपेक्षा से कारणपना और अपने कारणों की अपेक्षा से कार्यपना भी एक पदार्थ में विरोध रहित हो सकता है। अर्थात् अपने गुरु की अपेक्षा से जिनदत्त शिष्य तथा अपने पढ़ाये हुए शिष्यों की अपेक्षा से वही जिनदत्त गुरु भी हो सकता है। __बौद्ध कहते हैं कि स्वयं ज्ञानाद्वैत की अपेक्षा तो अन्य कार्य की और कारण की अथवा साध्य और साधक की सत्ता ही असिद्ध है। अत: उन अन्य पदार्थों की अपेक्षा कैसे हो सकती है? जिससे कि एक पदार्थ ही अपेक्षाकृत कार्य और कारण अथवा बाध्य और बाधक तथा साध्य और साधन हो सके। इस पर जैनाचार्य कहते हैं कि तब तो पर के सद्भाव की असिद्धि हो जाने के कारण किस प्रकार उस पर की अपेक्षा हो सकेगी? जिससे कि वह एक ही संवेदन पर का निषेध करने वाला और स्व का विधान कराने वाला हो सके। अत: संवेदन ज्ञान को स्व का विधायक और पर का निषेधक मानना सुगत के द्वारा हास्यास्पद तत्त्व कहा गया है। इसी बात को श्री विद्यानन्द आचार्य वार्त्तिक द्वारा स्पष्ट करते हैं - ज्ञानाद्वैतवादियों के यहाँ साध्य-साधन, कार्य-कारण, बाध्य-बाधक आदि तथा सत्य-असत्य की कोई व्यवस्था नहीं है। ऐसी दशा में तुम्हारे इष्ट स्वतत्त्व संवेदन की सिद्धि नहीं हो सकती है अत: क्षणिक शुद्ध विज्ञानाद्वैत स्वरूप तत्त्व को सुगत ने श्रुतमयी, चिन्तामयी भावनाओं द्वारा विचारा है! यह हास्यास्पद कथन है॥१३॥
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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