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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 25 परैः संवेद्यमानं वेदनमस्तीति ज्ञातुमशक्तेस्तस्य निराकृतिरस्माकं मतेति चेत्, तर्हि तन्नास्तीति ज्ञातुमशक्तेस्तद्व्यवस्थितिः किन्न मता। ननु तदस्तीति ज्ञातुमशक्यत्वमेव / तन्नास्तीति ज्ञातुं शक्तिरितिचेत्, तन्नास्तीति ज्ञातुमशक्यत्वमेव। तदस्तीति ज्ञातुं शक्तिरस्तु विशेषाभावात्। यदि पुनस्तदस्तिनास्तीति वा ज्ञातुमशक्तेः संदिग्धमिति मतिस्तदापि कथं संवेदनाद्वैतं सिद्ध्येदसंशयमिति चिन्त्यतां / संवेदनान्तरं प्रतिषेधमुखेन निराकरोतीति। द्वितीयकल्पनायां पुनरद्वैतवेदनसिद्धिर्दूरोत्सारितैव तत्प्रतिषेधज्ञानस्य द्वितीयस्य भावात् / स्वयं तत्प्रतिषेधकरणाददोष इति चेत्, तर्हि स्वपरविधिप्रतिषेधविषयमेकसंवेदनमित्यायातं। तथा चैकमेव वस्तुसाध्यं साधनं वापेक्षातः कार्य कारणं च, बाध्यं बाधकं चेत्यादि किन्न सिद्ध्येत् / विरुद्धधर्माध्यासादिति चेत्, __दूसरों के द्वारा संवेद्यमान ज्ञान हैं, इस बात को हम नहीं जान सकते हैं अतः उन अन्य वेद्यज्ञानों का निराकरण हो जाना हमारे यहाँ मान लिया गया है। - इस प्रकार बौद्धों के कहने पर तो दूसरों से संवेद्यमान वे ज्ञान नहीं हैं,' इसको भी तो हम नहीं जान सकते हैं अत: उन ज्ञानों के सद्भाव की व्यवस्था क्यों नहीं मान ली जाती है अर्थात् हम जैन छद्मस्थ जीव यदि परमाणु, पुण्य, पाप, परकीय सुख, दुःख आदि की विधि नहीं करा सकते हैं तो उनका निषेध भी नहीं कर सकते हैं। यदि जानने योग्य वे ज्ञान हैं- इस बात को नहीं जान सकना ही वे नहीं हैं' इस बात को जानने की शक्ति है। इस प्रकार बौद्धों के कहने पर हम जैन भी कह सकते हैं कि उन अन्यों के द्वारा जानने योग्य ज्ञान नहीं हैं। इस बात को जानने के लिए अशक्यता ही 'वे ज्ञान हैं' इस बात को जानने के लिए शक्ति हो जाती है, उनमें कोई अन्तर नहीं है। यदि फिर वे सन्तानान्तरों के ज्ञान एवं अपने ज्ञान “हैं अथवा नहीं हैं-" इस बात को निर्णीतरूप से नहीं जानने के कारण उन ज्ञानों के सद्भाव का संदेह प्राप्त होता है। बौद्धों के ऐसा कहने पर तो हम कहेंगे कि तुम्हारा माना गया संवेदनाद्वैत संशय रहित होता हुआ कैसे सिद्ध होगा? इस बात का चिन्तन करो। अनुभूयमान पृथक् संवेदन प्रतिषेध मुख से अन्य ज्ञेयों का निराकरण करता है, ऐसी द्वितीय कल्पना यदि आपको इष्ट है, तब तो फिर अद्वैत सम्वेदन की सिद्धि होना दूर ही फेंक दिया जायेगा। क्योंकि स्वकीय विधि को ही करने वाले ज्ञान के अतिरिक्त दूसरा उन अन्य ज्ञेयों के प्रतिषेध को जानने वाले ज्ञान का सद्भाव है। दो ज्ञानों के होने पर अद्वैत कहाँ रहा? द्वैत हो गया। ... यदि बौद्ध यों कहे कि स्व की विधि को करने वाला वह संवेदन स्वयं अकेला अन्य ज्ञान या ज्ञेयों का प्रतिषेध कर देता है। अत: हमारे ज्ञान अद्वैत सिद्धान्त में कोई दोष नहीं है, तब तो हम कहेंगे कि स्वरूप की विधि को और पररूप के निषेध को विषय करने वाला एक ही संवेदन सिद्ध होता है। इस प्रकार अनेक धर्म वाले एकधर्मी पदार्थ के मानने का प्रसंग आता है और ऐसा होने पर स्याद्वाद सिद्धान्तानुसार एक ही वस्तु साध्य अथवा साधन की अपेक्षाओं से क्यों नहीं सिद्ध होगी? अर्थात् एक ही ज्ञान साध्य और साधन हो सकता है। अथवा कारक पक्षानुसार धूम वह्नि का साध्य है और ज्ञापक पक्षानुसार अग्नि का धूम साधन है। तथा एक ही पदार्थ अपने कारणों का कार्य और अपने कार्यों का कारण बन जाता है। इसी प्रकार बाध्य
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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