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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक* 24 प्रकृतसालम्बनत्वेऽनेनैव हेतोर्व्यभिचारात्स्वरूपमात्रपर्यवसितत्वे प्रकृतसाध्यस्यास्मादसिद्धेः / संवेदनाद्वैतस्यैवं प्रसिद्धस्तथापि न सर्वशून्यत्वापत्तिरिति मन्यमानं प्रत्याह न चैवं सम्भवेदिष्टमद्वयं ज्ञानमुत्तमम् / ततोऽन्यस्य निराकर्तुमशक्तेस्तेन सर्वथा // 10 // यथैव हि सन्तानान्तराणि स्वसन्तानवेदनानि चानुभूयमानेन संवेदनेन सर्वथा विधातुं न शक्यन्ते / तथा प्रतिषिद्धमपि। तद्धि तानि निराकुर्वदात्ममात्रविधानमुखेन वा तत्प्रतिषेधमुखेन वा निराकुर्यात् / प्रथमकल्पनायां दूषणमाह स्वतो न तस्य संवित्तिरन्यस्य स्यान्निराकृतिः / किमन्यस्य स्वसंवित्तिरन्यस्य स्यान्निराकृतिः // 11 // स्वयं संवेद्यमानस्य कथमन्यैर्निराकृतिः। परैः संवेद्यमानस्य भवतां सा कथं मता // 12 // साध्य स्वरूपमात्र निमग्न सालम्बनपना माना जाएगा, तो उस अनुमान ज्ञान से ही ज्ञानत्व हेतु का व्यभिचार आता है क्योंकि इस अनुमान में ज्ञानपन हेतु तो रह गया और केवल अपने स्वरूप में लवलीनपना साध्य नहीं रहा। यदि इस व्यभिचार के निवारणार्थ इस अनुमानज्ञान को भी स्वरूपमात्र के प्रकाशने में ही लगा हुआ निर्विषय मानोगे, अपने विषयभूत साध्य का ज्ञापन करने वाला नहीं मानोगे तो इस अनुमान से प्रकरण प्राप्त साध्य स्वरूपमात्र प्रकाशन की सिद्धि नहीं हो सकेगी। संवेदनाद्वैत ही प्रसिद्ध है उसमें सर्वशून्यता की आपत्ति नहीं है। इस प्रकार कहने वाले बौद्ध के प्रति आचार्य कहते हैं - इस प्रकार बौद्धों के द्वारा कथित संवेदनाद्वैत ज्ञान उत्तमरूप से इष्ट एवं संभव नहीं है क्योंकि संवेदन से अन्य घट, पटादिक विषयों का सर्वथा निराकरण करना शक्य नहीं है॥१०॥ जिस प्रकार वर्तमान काल में भूत संवेदन ज्ञान अन्य संतानों के ज्ञानों और अपनी ज्ञानमाला रूप संतान के विज्ञानों की विधि कराने के लिए सर्वथा समर्थ नहीं है। उसी प्रकार वह ज्ञान अंतरंग बहिरंग ज्ञेयों के निषेध करने के लिए भी समर्थ नहीं हो सकता है, क्योंकि जो जिसका विधान नहीं कर सकता है, वह उसका क्वचित् निषेध भी नहीं कर सकता है। ___ वह अनुभूत ज्ञान यदि उन पृथक् - पृथक् स्व पर संतानों का निराकरण करता भी है तो क्या केवल अपनी विधि के मुख से उनका निषेध करता है? अथवा उन अन्य पदार्थों के निषेध की मुख्यता करके निषेध करता है? प्रथम कल्पना इष्ट करने पर जो दूषण आते हैं उनके बारे में आचार्य कहते हैं - उस अनुभूयमान संवेदन की स्वोन्मुख स्वयं अपने आपसे केवल अपनी ही सम्वित्ति होने से तो अन्य पदार्थों का निराकरण नहीं हो सकता, क्योंकि क्या अन्य पदार्थों की स्वसम्वित्ति उससे दूसरे पदार्थों का निषेधस्वरूप हो सकती है? कभी नहीं // 11 // स्वकीय ज्ञानसंतान अथवा परकीय ज्ञानसंतान के संवेद्यमान ज्ञान का अन्य ज्ञानों के द्वारा निराकरण कैसे हो सकता है? तथा आपने दूसरों के द्वारा संवेदन किए गए पदार्थ का अन्य के द्वारा निराकरण कर देना कैसे मान लिया है? // 12 //
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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