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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक *19 एवं मत्यादिबोधानां सभेदानां निरूपणम्। कृतं न केवलस्यात्र भेदस्याप्रस्तुतत्वतः // 5 // वक्ष्यमाणत्वतश्चास्य घातिक्षयजमात्मनः। स्वरूपस्य निरुक्त्यैव ज्ञानं सूत्रे प्ररूपणात् // 6 // मतिश्रुतयोर्निबन्धो द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु // 26 // मत्यादिज्ञानेषु सभेदानि चत्वारि ज्ञानानि भेदतो व्याख्याय बहिरंगकारणतश्च केवलमभेदं वक्ष्यमाणकारणस्वरूपमिहाप्रस्तुतत्वात् तथानुक्त्वा किमर्थमिदमुच्यत इत्याह अथाद्यज्ञानयोरर्थविवादविनिवृत्तये। मतीत्यादि वचः सम्यक् सूत्रयन्सूत्रमाह सः॥१॥ संप्रति के मतिश्रुते कश्च निबन्ध: कानि द्रव्याणि के वा पर्याया इत्याहकी पर्यायें और अशुद्धजीव की अरूपी सूक्ष्म अर्थपर्यायों को मनःपर्यय जितना जानता है, अवधिज्ञान उतना नहीं जानता। इस कथन को “रूपिष्ववधे:” आदि सूत्रों के विवरण करते समय स्पष्ट करेंगे। अतः विषय की अपेक्षा उस अवधिज्ञान से यह मन:पर्ययज्ञान विशिष्ट है॥४॥ ... इस प्रकार यहाँ तक अनेक भेद सहित मति आदिक चार क्षायोपशमिक ज्ञानों का सूत्रकार ने निरूपण किया है। केवलज्ञान की यहाँ प्ररूपणा नही की गयी है क्योंकि यहाँ ज्ञान के भेदों का प्रकरण चल रहा है। केवलज्ञान के कोई भेद नहीं है। दसवें अध्याय में आत्मा के घातिकर्मों के क्षय से केवलज्ञान उत्पन्न होता है यह कहा है। यह निरूपण (केवलज्ञान का स्वरूप) तो “मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलानि ज्ञानम्” इस सूत्र में केवल शब्द की निरुक्ति करके ही प्ररूपित कर दिया गया है॥५-६॥ अब आचार्य मतिज्ञान और श्रुतज्ञान के विषय के सम्बन्ध में कहते हैं - मतिज्ञान और श्रुतज्ञान द्रव्यों की कुछ पर्यायों को विषय करते हैं। मति और श्रुत के निबन्ध को मतिश्रुत का निबन्ध कहते हैं // 26 // - सामान्य रूप से मति श्रुत आदि ज्ञानों में भेद सहित वर्तन करने वाले मति, श्रुत, अवधि और मन:पर्यय हैं। इन चारों ज्ञानों को भेद की अपेक्षा से तथा बहिरंगकारण रूप से व्याख्यान करके तथा आगे दसवें अध्याय में भेद रहित एक ही प्रकार के केवलज्ञान का यहाँ प्रस्ताव प्राप्त नहीं होने के कारण इसका कथन न करके "मतिश्रुतयोः" इत्यादि सूत्र किस प्रयोजन के लिए कहा जा रहा है? ऐसी जिज्ञासा होने पर विद्यानन्द स्वामी कहते हैं - .. अब विषय प्रकरण के प्रारम्भ में ज्ञानों की आदि में कहे गये मतिज्ञान और श्रुतज्ञान इन दो ज्ञानों के विषयों की विप्रतिपत्ति का विशेषरूप से निवारण करने के लिए इस “मतिश्रुतयोर्निबन्धो" इत्यादि सूत्रस्वरूप समीचीन वचन को कहते हुए आचार्य ने सूत्र कहा है॥१॥ ___मतिज्ञान और श्रुतज्ञान कैसा है? और निबन्ध का अर्थ क्या है? तथा द्रव्य कौन से हैं? अथवा पर्यायें कौनसी हैं? इस प्रकार जिज्ञासा होने पर श्री विद्यानन्द स्वामी एक ही वार्त्तिक द्वारा उत्तर देते हैं -
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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