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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 18 कुतोऽवधेर्विशेष: स्यान्मन:पर्ययसंविदः / इत्याख्यातुं विशुद्ध्यादिसूत्रमाह यथागमं // 1 // विशुद्धिरुक्ता क्षेत्रं परिच्छेद्याद्यधिकरणं स्वामीश्वरो विषयः परिच्छेद्यस्तैर्विशेषोऽवधिमन:पर्यययोर्विशेषः। कथमित्याह भूयः सूक्ष्मार्थपर्यायविन्मनःपर्ययोऽवधेः। प्रभूतद्रव्यविषयादपि शुद्ध्या विशेष्यते // 2 // क्षेत्रतोऽवधिरेवात: परमक्षेत्रतामितः। स्वामिना त्ववधेः सः स्याद्विशिष्टः संयतप्रभुः॥३॥ विषयेण च निःशेषरूप्यरूप्यर्थगोचरः। रूप्यर्थगोचरादेव तस्मादेतच्च वक्ष्यते // 4 // मनःपर्ययज्ञान का अवधिज्ञान से अथवा अवधिज्ञान का मनःपर्ययज्ञान से विशेष किन-किन विशेषताओं से हो सकता है? इस बात को बताने के लिए सूत्रकार “विशुद्धिक्षेत्रस्वामि" आदि सूत्र को आर्ष आगम का अतिक्रमण नहीं कर स्पष्ट कर रहे हैं॥१॥ ___“विशुद्ध्यप्रतिपाताभ्यां तद्विशेषः" इसमें विशुद्धि का लक्षण कह दिया गया है। जानने योग्य आदि पदार्थों के अधिकरण को क्षेत्र कहते हैं। अधिकारी प्रभु, स्वामी कहा जाता है। ज्ञान द्वारा जानने योग्य पदार्थ विषय हैं। इन विशुद्धि आदिकों के द्वारा अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान में परस्पर विशेषता है। इन दोनों का विशेष किस प्रकार है? ऐसी जिज्ञासा होने पर आचार्य कहते हैं बहुत से द्रव्यों को विषय करने वाले भी अवधिज्ञान से बहुत सी सूक्ष्म अर्थपर्यायों को जानने वाला मन:पर्यय ज्ञान विशुद्धि करके विशेषित कर दिया जाता है अर्थात्-यद्यपि अवधिज्ञान बहुत से द्रव्यों को जानता है, किन्तु द्रव्य की सूक्ष्म अर्थपर्यायों को मन:पर्यय ज्ञान अधिक जानता है। अवधिज्ञान से जाने हुए रूपीद्रव्य के अनन्तवें भाग को मन:पर्यय जान लेता है। द्रव्य की अपेक्षा सर्वावधि का विषय बहुत है। फिर भी भाव की अपेक्षा बहुत सी अर्थपर्यायों को विपुलमति जितना जानता है, उतना सर्वावधि नहीं जानता है। अत: अधिक विशुद्धि वाला मन:पर्ययज्ञान अल्पविशुद्धि वाले अवधिज्ञान से विशिष्ट है।॥२॥ क्षेत्र की अपेक्षा अवधिज्ञान इस मन:पर्ययज्ञान से परम उत्कृष्ट क्षेत्रपने को प्राप्त है अर्थात् असंख्यात लोकस्थ रूपी पदार्थों को जानने की शक्तिवाला अवधिज्ञान ही केवल मनुष्य लोकस्थ पदार्थों को विषय करने वाले मन:पर्यय से विशिष्ट है। अर्थात् इस तीन सौ तैंतालीस घन रज्जु प्रमाण लोक के समान यदि अन्य भी असंख्याते लोक होते तो तत्रस्थ रूपी पदार्थों को भी अवधिज्ञान जान सकता है। किन्तु मनःपर्ययज्ञान केवल मनुष्य लोक में ही स्थित पदार्थों को विषय कर सकता है। अतः क्षेत्र की अपेक्षा अवधिज्ञान ही मन:पर्यय से प्रकृष्ट है। तथा स्वामी की अपेक्षा मन:पर्ययज्ञान ही अवधिज्ञान से उत्कृष्ट है क्योंकि अवधिज्ञान चौथे गुणस्थान से प्रारम्भ होता है। चारों गतियों में पाया जाता है। किन्तु मन:पर्यय छठे से ही आरम्भ होकर किसी-किसी ऋद्धिधारी मुनि के उत्पन्न होता है। अतः जिसका स्वामी संयमी है, ऐसा मनःपर्ययज्ञान उस असंयमी के पायी जाने वाली अवधि से विशिष्ट / / 3 / / सम्पूर्ण रूपी और पुद्गल से बँधे हुए सम्पूर्ण अरूपी अर्थों को विषय करने वाला यह मन:पर्यय ज्ञान उस रूपी अर्थ को ही विषय करने वाले अवधिज्ञान से विषय की अपेक्षा भी विशिष्ट है। अर्थात्-रूपी पुद्गल
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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