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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 17 तस्य ततो विशुद्धतरत्वान्मन:पर्ययज्ञानावरणक्षयोपशमप्रकर्षादुत्पन्नत्वात् / अप्रतिपातेन च तत्स्वामिनामप्रतिपतितसंयमत्वेन तत्संयमगुणैकार्थसमवायित्वेन विपुलमतेरप्रतिपाताद्विपुलमतेस्तु कथमृजुमतिर्विशिष्यते? ताभ्यामिति चेत्स्वविशुद्ध्याल्पया प्रतिपातेन चेति गम्यताम्। विपुलमत्यपेक्षयर्जुमतेरल्पविशुद्धित्वात्तत्स्वामिनामुपशान्तकषायाणामपि सम्भवत्प्रतिपतत्संयमगुणैकार्थसमवायिनः प्रतिपातसम्भवादिति प्रपंचितमस्माभिरन्यत्र // विशुद्धिक्षेत्रस्वामिविषयेभ्योऽवधिमन:पर्यययोः // 25 // विशेष इत्यनुवर्तते। किमर्थमिदमुच्यते इत्याह शंका - ऋजुमति से विशुद्धतर होने से तथा मनःपर्यय ज्ञानावरण के प्रकर्ष क्षयोपशम से उत्पन्न होने से विपुलमति मन:पर्यय विशुद्धि की अपेक्षा विशेषित किया जा सकता है तथा मन:पर्यय के स्वामियों का संयम पतनशील न होने से और वर्द्धमान संयम गुण के साथ एकार्थ समवाय सम्बन्ध होने से विपुलमति ऋजुमति से विशिष्ट है, यह कहा जा सकता है किन्तु विपुलमति से ऋजुमति मन:पर्यय ज्ञान तो उन विशुद्धि और अप्रतिपात से विशेषताओं को कैसे प्राप्त हो सकता है? क्योंकि ऋजुमति में तो अधिक विशुद्धि और अप्रतिपात नहीं पाये जाते हैं वा उन दोनों में विशेषता स्वविशुद्धि की अल्पता से और प्रतिपात से जानी जाती समाधान - इस प्रकार प्रविष्ट होकर शंका करने पर आचार्य कहते हैं कि अपनी अल्प विशुद्धि और प्रतिपात से ऋजुमति ज्ञान विपुलमति से विशेषता ग्रस्त है। इस प्रकार अपने चित्त में अवधारण करना चाहिए। उक्त शंका का इसके अतिरिक्त अन्य कोई समाधान नहीं है। विपुलमति की अपेक्षा से ऋजुमतिज्ञान अल्प विशुद्धिवाला है क्योंकि उस ऋजुमति के अधिकारी स्वामी छटे से आरम्भ कर उपशान्त कषाय वाले ग्यारहवें गुणस्थान तक में यथायोग्य हो सकते हैं। तो भी प्रतिपतनशील संयमगुण के साथ एकार्थसमवाय सम्बन्ध को धारने वाले ऋजुमति का प्रतिपात होना सम्भव है अतः ऋजुमति भी अपनी अल्पविशुद्धि और प्रतिपात से विपुलमति से विशेषताओं का धारक है अर्थात् ऋजुमति से विपुलमति विशुद्धतर है और अप्रतिपात है, ऐसा जानना चाहिए। इसका विशेष विस्तार हमने अन्यत्र किया है। मनःपर्यय के विशेष भेदों का ज्ञान कर अब श्री उमास्वामी महाराज अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान की विशेषताओं को कहते हैं -- विशुद्धि, क्षेत्र, स्वामी और विषय की अपेक्षा अवधि और मनःपर्यय ज्ञान में विशेषता है // 25 // ऊपर के "विशुद्ध्यप्रतिपाताभ्यां तद्विशेषः" इस सूत्र में से विशेष इस शब्द की अनुवृत्ति कर ली जाती है। किस प्रयोजन की सिद्धि के लिए यह सूत्र कहा गया है? इस प्रकार की जिज्ञासा होने पर आचार्य कहते हैं
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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