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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 16 तयोरेव विपुलमत्योर्विशुद्ध्यप्रतिपाताभ्यां विशेषोऽवसेय इत्यर्थः॥ ननूत्तरत्र तद्भेदस्थिताभ्यां स विशिष्यते। विशुद्ध्यप्रतिपाताभ्यां पूर्वस्तु न कथंचन // 4 // इत्ययुक्तं विशेषस्य द्विष्ठत्वेन प्रसिद्धितः। विशिष्यते यतो यस्य विशेषः सोऽत्र हीक्षते // 5 // पाठापेक्षयोत्तरो मन:पर्ययस्य भेदो विपुलमतिस्तद्गताभ्यां विशुद्ध्यप्रतिपाताभ्यां स एव पूर्वस्मात्तद्रेदादृजुमतेर्विशिष्यते न पुन: पूर्व उत्तरस्मात्कथमपीत्ययुक्तं विशेषस्योभयस्थत्वेन प्रसिद्धः। यतो विशिष्यते स विशेषो यश्च विशिष्यते स विशेष्य इति व्युत्पत्तेः। विशुद्ध्यप्रतिपाताभ्यां चोत्तरतद्भेदगताभ्यां पूर्वो यथोत्तरस्माद्विशिष्यते तथा पूर्ववतेंदगाभ्यामुत्तर इति सर्वं निरवद्यं / ननु चर्जुमतेर्विपुलमतिर्विशुद्ध्या विशिष्यते ऋजुमति और विपुलमति नामक उन मन:पर्यय के भेदों को ही विशुद्धि और अप्रतिपात से विशेष जान लेना चाहिए। “तयोरेव विशेषः” इस प्रकार अवधारण लगाकर अर्थ किया गया है। शंका - पूर्वसूत्र में “ऋजुविपुलमति" शब्द द्वारा कहा गया विपुलमति ही उत्तर सूत्र में भेद करने में स्थित विशुद्धि और अप्रतिपात से विशेषित किया जा सकता है। किन्तु पहला ऋजुमति किसी भी प्रकार से विशुद्धि और अप्रतिपात से विशेषित नहीं किया जा सकता है। समाधान - इस प्रकार शंका करना अयुक्त है, क्योंकि संयोग विभाग द्वित्व त्रित्व संख्या के समान विशेष पदार्थ भी दो आदि अधिकरणों में स्थित होकर प्रसिद्ध है। जिसके द्वारा विभाग किया जाता है अथवा जिसका विभाग किया जाता है, इस निरुक्ति के अनुसार विभाग दो में रहता है। इसी प्रकार जिससे जो विशेषित किया जाता है अथवा जिस पदार्थ का विशेष होता है, वह विशेष है। वह विशेष यहाँ दृष्टिगोचर हो रहा है अतः विपुलमति और ऋजुमति दोनों परस्पर में विशुद्धि, अप्रतिपात द्वारा विशेष से आक्रान्त हो जाते हैं॥४-५॥ सूत्र के पाठ की अपेक्षा से उत्तर में वर्त रहा मन:पर्यय ज्ञान का भेद विपुलमति है। उस विपुलमति में प्राप्त विशुद्धि और अप्रतिपात से वह विपुलमति ही पूर्ववर्ती उस मन:पर्यय के भेद ऋजुमति से विशेषता को प्राप्त हो सकता है। किन्तु फिर पूर्ववर्ती ऋजुमति उत्तरवर्ती विपुलमति से कैसे भी विशेषता को प्राप्त नहीं हो सकता। इस प्रकार कहना उचित नहीं है, क्योंकि विशेषता की दोनों में स्थिति होने से प्रसिद्धि है। जिससे विशेषता को प्राप्त होता है, वह पंचमी विभक्तिवाला भी विशेष है और जो पदार्थ विशिष्ट हो रहा है, वह प्रथमा विभक्तिवाला पद भी विशेष है। इस प्रकार विशेष पद की व्युत्पत्ति करने से प्रतियोगी, अनुयोगी दोनों में रहने वाले दोनों विशेष लिये जाते हैं। जिसकी ओर से विशेषता आती है और जिस पदार्थ में विशेषता आकर बैठ जाती है, वे दोनों पदार्थ परस्पर में किसी विवक्षित धर्म द्वारा विशेष से युक्त माने जाते हैं। उस मन:पर्यय के उत्तरवर्ती भेदस्वरूप विपुलमति में प्राप्त विशुद्धि और अप्रतिपात से जिस प्रकार पूर्ववर्ती ऋजुमति विशेषित कर दिया जाता है उसी प्रकार उस मनःपर्यय के पूर्ववर्ती भेद ऋजुमति में प्राप्त हो रहे, प्रतियोगितावच्छिन्न विशुद्धि और अप्रतिपात के उन अल्प विशुद्धि और प्रतिपात से उत्तरवर्ती विपुलमति भी विशेषित हो जाता है। इस प्रकार सभी सिद्धान्त निर्दोष होकर सिद्ध होते हैं।
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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