SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 28
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 15 विशुद्ध्यप्रतिपाताभ्यां तद्विशेषः // 24 // ननु ऋविपुलमत्योः स्ववचनसामर्थ्यादेव विशेषप्रतिपत्तेस्तदर्थमिदं किमारभ्यत इत्याशंकायामाहमनःपर्यययोरुक्तभेदयोः स्ववचोबलात्। विशेषहेतुसंवित्तौ विशुद्धीत्यादिसूत्रितम् // 1 // नर्जुमतित्वविपुलमतित्वाभ्यामेव विपुलमत्योर्विशेषोऽत्र प्रतिपाद्यते / यतोनर्थकमिदं स्यात्। किं तर्हि विशुद्ध्यप्रतिपाताभ्यां तयोः परस्परं विशेषान्तरमिहोच्यते ततोऽस्य साफल्यमेव / का पुनर्विशुद्धिः कश्चाप्रतिपात: कोवानयोर्विशेष इत्याहआत्मप्रसत्तिरत्रोक्ता विशुद्धिर्निजरूपतः। प्रच्युत्य संभवश्वास्याप्रतिपात: प्रतीयते॥२॥ ताभ्यां विशेष्यमाणत्वं विशेषः कर्मसाधनः। तच्छब्देन परामर्शो मनःपर्ययभेदयोः॥३॥ बहिरंगकारण मन के स्वरूप की समीचीन वित्ति (ज्ञान) हो जाती है। अतः मनःपर्यय शब्द की षष्ठी तत्पुरुष अथवा बहुब्रीहि समास द्वारा निरुक्ति करने पर मन का बहिरंगकारणपना जान लिया जाता है। इस प्रकार मन:पर्यय के भेद और कारण का ज्ञान मन:पर्यय शब्द से हो जाता है॥१३-१४॥ विशुद्धि और अप्रतिपात की अपेक्षा इन दोनों में विशेषता है॥२४॥ ऋजुमति और विपुलमति ज्ञानों के अपने-अपने अर्थों के अभिधायक वचनों की सामर्थ्य से ही दोनों के विशेषों की प्रतिपत्ति हो जाती है और निरुक्ति द्वारा लभ्य अर्थ की जब प्राप्ति हो जाती है तो उस विशेष की ज्ञप्ति कराने के लिए यह सूत्र क्यों बनाया गया है? इस प्रकार की आशंका का उत्तर देते हैं . . यद्यपि सरल, सम्पादित और सरल, कुटिल, सम्पादितं, असम्पादित, मनोगत विषयों को जानने की अपेक्षा अपने वाचक ऋजु और विपुल शब्दों की सामर्थ्य से निरुक्ति द्वारा ही दोनों मन:पर्ययों के परस्पर भेद कहे जा चुके हैं, फिर भी उन दोनों की अन्य विशेषताओं के कारणों का संवेदन कराने के निमित्त "विशुद्ध्यप्रतिपाताभ्यां तद्विशेषः" यह सूत्र रचा है॥१॥ ऋजुमतित्व और विपुलमतित्व के कथन मात्र से ऋजुमति और विपुलमति का विशेष (अन्तर) इस सूत्र द्वारा नहीं समझाया जा रहा है, जिससे कि यह सूत्र व्यर्थ हो जाए। फिर यह सूत्र क्यों कहा गया है? इसका उत्तर है कि विशुद्धि और अप्रतिपात यह उन ऋजुमति और विपुलमति ज्ञानों का जो परस्पर में विशेष अन्तर है वह यहाँ इस सूत्र द्वारा कहा जा रहा है अर्थात् दोनों मन:पर्यय ज्ञानों में विशुद्धि और अप्रतिपात की अपेक्षा अन्तर है। उसका कथन इस सूत्र के द्वारा किया गया है। .. विशुद्धि क्या है? और अप्रतिपात क्या है? तथा इनका विशेष क्या है? इस प्रकार की जिज्ञासाओं का उत्तर कहते हैं प्रतिपक्षी कर्मों के विनाश से उत्पन्न आत्मा की प्रसन्नता विशुद्धि है। इस आत्मा का अपने स्वरूप से प्रच्युत नहीं होना अप्रतिपात धर्म प्रतीत होता है तथा उन धर्मों के द्वारा विशेषताओं का प्राप्त होना विशेष कहा गया है, क्योंकि यहाँ 'वि' उपसर्ग पूर्वक 'शिष्' धातु से कर्म साधन में 'घञ्' प्रत्यय कर 'विशेष' शब्द सिद्ध किया गया है। तद्विशेष में कहे गये पूर्वपरामर्शक तत् शब्द करके मन:पर्ययज्ञान के ऋजुमति और विपुलमति इन दो भेदों का परामर्श किया गया है। इस प्रकार सूत्र का वाक्यार्थ बोध होता है॥२-३॥
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy