SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 317
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक* 304 'कार्येषु कुंभकारस्य तन्निवृत्तेस्ततो ग्रहात् / ज्ञापकस्य च धूमादेरग्न्यादौ ज्ञप्तिकारिणः // 394 // स्वज्ञेये परसंताने वागादेरपि निश्चयात् / त्रैकाल्यानुपपत्तेश्च प्रतिषेधे क्वचित्तथा // 395 / / समा न कार्यासौ प्रतिषेधः स्याद्वादविद्भिः, कथं पुनस्त्रैकाल्यासिद्धिहेतोरहेतुसमा जातिरभिधीयते? अहेतुसामान्यप्रत्यवस्थानात् / यथा ह्यहेतुः साध्यस्यासाधकस्तथा हेतुरपि त्रिकालत्वेनाप्रसिद्ध इति स्पष्टत्वादहेतुसमा जातेर्लक्षणोदाहरणप्रतिविधानानामलं व्याख्यानेन // प्रयत्नानंतरोत्थत्वाद्धेतोः पक्षे प्रसाधिते। प्रतिपक्षप्रसिद्ध्यर्थमर्थापत्त्या विधीयते // 396 // या प्रत्यवस्थितिः सात्र मता जातिविदांवरैः / अर्थापत्तिः समैवोक्ता साधनाप्रतिवेदिनी / 397 / कुम्भकार, जुलाहा आदि कारकों के प्रत्यक्ष प्रमाण से हेतुपना सिद्ध हो जाने से प्रतिवादी के प्रसंग की निवृत्ति हो जाती है अर्थात् प्रतिवादी के द्वारा जो कहा गया था कि साध्य के पूर्व साधन नहीं हो सकता, साध्य के पश्चात् नहीं हो सकता और साध्य के साथ भी साधन नहीं हो सकता इसकी निवृत्ति हो जाती है और ज्ञापक ' हेतु का ग्रहण हो जाता है।३८९-३९४ // निज ज्ञेय में अग्नि आदि साध्यों में ज्ञप्ति के कारणभूत धूम आदि ज्ञापक हेतुओं का निश्चय हो रहा / है। और परज्ञेय में ज्ञप्ति के कारणभूत मानव के वचन व्यापार आदि के द्वारा परसंतान का निश्चय हो जाता है। अतः स्वतः अनुमान में धूम आदि को देखकर अग्नि का ज्ञान हो जाता है। परतः अनुमान में दूसरे वचनादि साधन से साध्य को जान लिया जाता है। इसलिए प्रतिषेध में त्रिकाल की अनुपपत्ति है। क्वचित् उसी प्रकार है अर्थात् हेतु पूर्वकाल में रहता है कि उत्तर काल में रहता है कि दोनों समकाल में रहते हैं, यह प्रश्न नहीं उठता। क्योंकि कारक हेतु कार्य के पूर्वकाल में अवश्य रहता है परन्तु ज्ञापक हेतु के लिए कोई समय नियत नहीं है। साध्य के साथ साधन का अविनाभाव होना ही साधन का वास्तविक लक्षण है॥३९५॥ जैनाचार्य कहते हैं कि स्याद्वाद के ज्ञाताओं को यह अहेतु नामक प्रतिषेध कभी नहीं करना चाहिए। प्रश्न - "त्रैकाल में हेतु की असिद्धि होने से अहेतुसमा जाति कही जाती हैं" ऐसा न्यायशास्त्रों में कहा है। उसका कथन सिद्ध कैसे हो सकता है? उत्तर - प्रतिवादी ने अहेतुपन सामान्य से प्रत्यवस्थान (उलाहना) दिया है कि जिस प्रकार विवक्षित पदार्थ का जो हेतु नहीं है, वह साध्य का असाधक है, उसी प्रकार त्रिकाल में असिद्ध हेतु भी साध्य का साधक नहीं है। इस प्रकार, अहेतुसमा जाति का लक्षण, उदाहरण और असदुत्तररूप जाति का खण्डन करने वाले प्रतिविधानों की स्पष्टता दृष्टिगोचर होती है। अतः अधिक विवरण से कोई प्रयोजन नहीं है। घट के समान पुरुष के प्रयत्न से उत्पन्न होने से शब्द अनित्य है। इस प्रकार प्रयत्नानन्तर उत्पन्न हेतु से शब्द के अनित्यत्व पक्ष के सिद्ध हो जाने पर प्रतिवादी के द्वारा प्रतिपक्ष नित्यत्व की प्रसिद्धि करने के लिए अर्थापत्ति के द्वारा जो प्रत्यवस्थान किया जाता है, वह यहाँ पर जातिवेत्ता विद्वानों में श्रेष्ठ पुरुषों के द्वारा अर्थापत्तिसमा जाति मानी गयी है, जो साधन को नहीं जानने वाले के प्रतिकूल पक्ष में कही गयी है॥३९६-३९७॥
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy