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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 305 यदि प्रयत्नजत्वेन शब्दस्यानित्यताभवत् / तदार्थापत्तितो नित्यसाधादस्तु नित्यता // 398 // यथैवास्पर्शनत्वादेर्नित्ये दृष्टा तथा ध्वनौ / इत्यत्र विद्यमानत्वात्समाधानस्य तत्त्वतः // 399 // शब्दोऽनित्योस्ति तत्रैव पक्षे हेतोरसंशयम् / एष नास्तीति पक्षस्य हानिरर्थात्प्रतीयते // 400 // यया च प्रत्यवस्थानमर्थापत्त्या विधीयते। नानैकांतिकता दृष्टा समत्वादुभयोरपि // 401 // ग्राव्णो घनस्य पात: स्यादित्युक्तेान्न सिद्ध्यति। द्रवात्मनामपां पाताभावोर्थापत्तितो यथा॥४०२॥ तस्या: साध्याविनाभावशून्यत्वं तद्वदेव हि। शब्दानित्यत्वसंसिद्धौ नार्थानित्यत्वसाधन४०३॥ यदि प्रयत्नजत्व (प्रयत्न से उत्पन्न) हेतु के द्वारा शब्द की अनित्यता सिद्ध होती है, तब तो अर्थापत्ति न्याय से नित्य के साथ साधर्म्य होने से शब्द के नित्यता भी सिद्ध होती है। जैसे नित्य आकाश में अस्पर्शत्व है, उसी प्रकार शब्द में भी अस्पर्शत्व विद्यमान है। इस प्रकार किसी के कहने पर जैनाचार्य कहते हैं कि तत्त्वतः समाधान का कथन किया जाए तो यह अर्थापत्ति नहीं है; अर्थापत्तिभास है। क्योंकि इससे शब्द के अनित्यत्व का खण्डन नहीं होता है॥३९८-३९९॥ “शब्द अनित्य है किया हुआ होने से'। इस अनित्य पक्ष में हेतु की असंशयता है अर्थात् इस हेतु में कोई संशय नहीं है। इसलिए “शब्द अनित्य नहीं है, आकाश के समान स्पर्श गुण रहित होने से'' इस पक्ष (शब्द को नित्य मानना) की हेतु से अर्थापत्ति न्याय से हानि प्रतीत होती है। _अर्थात् यदि नित्य पदार्थ के साधर्म्य स्पर्श रहितत्व से आकाश के समान शब्द नित्य है तो कथन के बिना ही अर्थापत्ति से यह सिद्ध हो जाता है कि अनित्य पदार्थ के साधर्म्य प्रयत्नजन्यत्व हेतु से घट के समान शब्द अनित्य है॥४००॥ किंच-जिस अर्थापत्ति से प्रतिवादी के द्वारा प्रत्यवस्थान (दोष) किया जाता है; वह अर्थापत्ति पक्ष और विपक्ष दोनों में समान होने से अनैकान्तिक (व्यभिचार) दोष से युक्त देखी जा रही है। अत: इस अर्थापत्ति से साध्य की सिद्धि नहीं हो सकती। अर्थात् किसी विशेष पदार्थ की विधि कर देने पर शेष पदार्थों का निषेध सिद्ध नहीं हो सकता। जैसे “कठिन पाषाण का नियम से पतन होता है" - ऐसा कहने पर अर्थापत्ति न्याय से यह सिद्ध नहीं हो सकता कि द्रवात्मक पदार्थों (गीले और कोमल जल पदार्थों) के भी पात का अभाव सिद्ध नहीं होता है। उसी प्रकार उस अर्थापत्ति के उत्थापक अर्थ का साध्य के साथ अविनाभाव की शून्यता है। तथा शब्द के अनित्य की सिद्धि हो जाने पर अनैकान्तिक अर्थापत्ति के द्वारा शब्द के नित्यत्व की सिद्धि नहीं हो सकती // 401 से 402 // ___ अर्थात् शब्द को अनित्य सिद्ध करने वाले हेतु का साध्य के साथ अविनाभाव सिद्ध है। परन्तु शब्द को नित्य सिद्ध करने वाला अस्पर्शत्व हेतु अविनाभाव से विकल है, रहित है।
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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