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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 303 तत्त्वावधारणे सत्येवैतत्प्रकरणं सिद्धं भवेन्नान्यथा। न चात्र तत्त्वावधारणं ततोऽसिद्धं प्रकरणं, तदसिद्धौ च नैवेयं प्रत्यवस्थितिः संभवति॥ का पुनरहेतुसमा जातिरित्याहत्रैकाल्यानुपपत्तेस्तु हेतोः साध्यार्थसाधने। स्यादहेतुसमा जातिः प्रयुक्ते साधने क्वचित् / 389 / पूर्वं वा साधनं साध्यादुत्तरं वा सहापि वा। पूर्वं तावदसत्यर्थे कस्य साधनमिष्यते // 390 // पश्चाच्चेत् किं नु तत्साध्यं साधनेऽसति कथ्यतां / युगपद्वा क्वचित्साध्यसाधनत्वं न युज्यते // 391 // स्वतंत्रयोस्तथाभावासिद्धेर्विन्ध्यहिमाद्रिवत् / तथा चाहेतुना हेतुर्न कथंचिद्विशिष्यते // 392 // इत्यहेतुसमत्वेन प्रत्यवस्थाप्यऽयुक्तिता। हेतोः प्रत्यक्षतः सिद्धेः कारकस्य घटादिषु // 393 // किंच तत्त्व की अवधारणा होने पर (दोनों पक्षों का तात्त्विक निर्णय हो जाने पर) यह प्रकरणसमा जाति सिद्ध हो सकती है। अन्यथा उभय साध्य धर्म्य से होने वाली प्रक्रिया कैसे भी सिद्ध नहीं हो सकती। परन्तु यहाँ तो विप्रतिषेध होने के कारण दोनों का तात्त्विकपना निर्णीत ही नहीं हो सकता। अत: यह प्रकरण सिद्ध नहीं है और उस प्रक्रिया की सिद्धि नहीं होने पर प्रकरणसमा जाति संभव नहीं है। अहेतुसमा जाति क्या है? - ऐसा पूछने पर जैनाचार्य कहते हैं - . साध्यस्वरूप अर्थ के साधन करने में हेतु का तीनों काल में नहीं रहना अहेतुसमा जाति है। जैसे किसी वादी के द्वारा समीचीन साधन का प्रयोग करने पर दूसरा प्रतिवादी समीचीन दूषणों को नहीं देखता; यह प्रश्न उठाता है कि “ज्ञापक हेतु क्या साध्य से पूर्व काल में रहता है, अथवा साध्य के पश्चात् उत्तर काल में रहता है अथवा क्या साध्य और साधन दोनों भी समान काल में साथ-साथ रहते हैं? यदि कहो कि साध्य के पूर्व काल में ज्ञापक हेतु रहता है, यह तो सिद्ध नहीं हो सकता। क्योंकि साध्य रूप अर्थ के नहीं होने पर साधन (हेतु) किसका कहा जायेगा? अर्थात् किसी का भी नहीं। यदि साध्य के पश्चात् साधन की प्रवृत्ति मानेंगे, तो उसके साध्यपना नहीं हो सकता, क्योंकि साधन के नहीं होने पर साध्य कैसे कहा जा सकता है? अर्थात् साधन के होने पर ही किसी को साध्य कहा जा सकता है। साधन के द्वारा साधने योग्य पदार्थ को ही साध्य कहते हैं। यदि साध्य और साधन को युगपत् सहभाव मानेंगे तो किसी एक विवक्षित में ही साध्य और साधन युक्त नहीं हो सकता। स्वतंत्रता से प्रसिद्ध सहकालभावी दोनों में किसी एक के उस प्रकार का साध्यपना और शेष के साधनपना असिद्ध है। जैसे एक साथ स्थित विन्ध्याचल और हिमाचल में साध्य और साधनपना असिद्ध है। तथा ऐसा होने पर वादी के द्वारा कथित हेतु अहेतु (हेत्वाभास) के साथ किसी भी प्रकार से अन्तर रखने वाला नहीं हो सकेगा। अर्थात् अहेतु से साध्य की सिद्धि नहीं हो सकती। जैनाचार्य कहते हैं कि इस प्रकार अहेतु समत्व से प्रत्यवस्थान (उलाहना) देना भी युक्तिया से रहित है। क्योंकि घट, पट आदि कार्यों में
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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