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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 302 तत: पक्षे विपक्षे च प्रक्रिया समानेत्युभयपक्षपरिग्रहेण वादिप्रतिवादिनोनित्यत्वानित्यत्वे साधयतः / साधर्म्यसमायां संशयसमायां च नैवमिति ताभ्यां भिन्नेयं प्रकरणसमा जातिः।। कथमीदृशं प्रत्यवस्थानमयुक्तमित्याहप्रक्रियांतनिवृत्त्या च प्रत्यवस्थानमीदृशं / विपक्षे प्रक्रियासिद्धौ न युक्तं तद्विरोधतः // 386 // प्रतिपक्षोपपत्तौ हि प्रतिषेधो न युज्यते। प्रतिषेधोपपत्तौ च प्रतिपक्षकृतिध्रुवम् // 387 // तत्त्वावधारणे चैतत्सिद्धं प्रकरणं भवेत् / तदभावेन तत्सिद्धिर्येनेयं प्रत्यवस्थितिः // 388 / / प्रक्रियांतनिवृत्त्या प्रत्यवस्थानमीदृशमयुक्तं, विपक्षे प्रक्रियासिद्धौ तयोर्विरोधात्। प्रतिपक्षप्रक्रियासिद्धौ हि प्रतिषेधो विरुध्यते, प्रतिषेधोपपत्तौ च प्रतिपक्षप्रक्रियासिद्धिाहन्यते इति विरुद्धस्तयोरेव सांभवी। किं च, प्रक्रिया साध्यसमा जाति में और संशयसमा जाति में नहीं है। अर्थात् साधर्म्य समा जाति में साधर्म्य के द्वारा प्रतिपक्ष सिद्धि की संभावना है और संशयसमा जाति में उभय साधर्म्य से पक्ष, प्रतिपक्षों के संशय बना रहता है। इसलिए संशयसमा और साधर्म्यसमा जाति से प्रकरणसमा जाति भिन्न ही है। प्रतिवादी के द्वारा यह प्रकरणसमा नामक प्रत्यवस्थान उठाना अयुक्त क्यों है? ऐसा पूछने पर आचार्य कहते हैं - प्रकरण के अवसान (समाप्ति) में तत्त्वों का अवधारण करने पर प्रक्रिया की निवृत्ति से इस प्रकार प्रत्यवस्थान (उलाहना) देना प्रतिवादी का युक्तिपूर्ण कार्य नहीं है। क्योंकि प्रतिवादी के विपक्ष और वादी को इष्ट अनित्यत्व में प्रक्रिया की सिद्धि हो जाने पर पुनः प्रतिवादी द्वारा अपने पक्ष की सिद्धि मानना उससे विरोध होने का कारण होने से उचित नहीं है। वादी को अभीष्ट और प्रतिवादी के प्रतिकूल पक्ष की सिद्धि हो जाने पर नियम से प्रतिवादी द्वारा प्रतिषेध करना उचित नहीं जान पड़ता है। प्रतिवादी के प्रतिषेध की सिद्धि हो जाने पर भी निश्चय करके वादी के निज प्रतिपक्ष की सिद्धि करना नहीं हो सकता। यहाँ पर प्रतिवादी के द्वारा तत्त्व की अवधारणा हो जाने पर प्रतिवादी का प्रकरण सिद्ध हो सकता था। जब पुरुष के प्रयत्नजन्य रूप हेतु से वादी के अनित्यत्व पक्ष की सिद्धि हो जाने से नित्यत्व प्रतिपक्ष की सिद्धि का अभाव हो जाता है। इसलिए दोनों प्रक्रियाओं की सिद्धि नहीं हो सकती। जिससे यह प्रकरण समा जाति नामक प्रत्यवस्थान समीचीन उत्तर नहीं है। जब दोनों विरुद्ध पक्षों की प्रक्रिया सिद्ध नहीं हो सकती है, तब लक्षण सूत्र के नहीं घटने पर यह प्रकरणसमा प्रतिषेध अयुक्त प्रतीत होता है। जाति का स्वयं कियागया लक्षण वहाँ नहीं है।॥३८६-३८७३८८॥ पक्ष और विपक्ष दोनों में से किसी एक के सिद्ध हो जाने पर उसके अन्त में विपरीत पक्ष की निवृत्ति कर देने से ऐसा प्रकरणसमा प्रत्यवस्थान उठाना अयुक्त है। क्योंकि एक विपक्ष में प्रक्रिया की सिद्धि हो जाने पर दोनों की (पक्ष, विपक्ष की) सिद्धि कहना विरुद्ध है। प्रतिपक्ष की प्रक्रिया के सिद्ध हो जाने पर प्रतिपक्ष का प्रतिषेध करना नियमविरुद्ध है। और प्रतिपक्ष के निषेध की सिद्धि हो चुकने पर प्रतिपक्ष की प्रक्रिया साधने का व्याघात हो जाता है। क्योंकि विपक्ष, पक्ष का एक स्थान में रहना विरुद्ध है।
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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