________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 281 का पुनरपकर्षसमेत्याहसाध्यधर्मिणि धर्मस्याभावं दृष्टांततो वदन् / अपकर्षसमां वक्ति जातिं तत्रैव साधने // 342 // लोष्ठः क्रियाश्रयो दृष्टोऽविभुः कामं तथास्तु ना / तद्विपर्ययपक्षे वा वाच्यो हेतुर्विशेषकृत् // 343 // तत्रैव क्रियावज्जीवसाधने प्रयुक्ते सति साध्यधर्मिणि धर्मस्याभावं दृष्टांतात् समासंजयन् यो वक्ति सोपकर्षसमाजातिं वदति। यथा लोष्ठः क्रियाश्रयोऽसर्वगतो दृष्टस्तद्वदात्मा सदाप्यसर्वगतोस्तु विपर्ययैर्वा विशेषकृद्धेतुर्वाच्य इति // वावर्ण्यसमौ प्रतिषेधौ कावित्याहक्रियासहितपन का साधन कह चुकने पर दूसरा प्रतिवादी प्रत्यवस्थान उठाता है कि क्रिया हेतु गुणों का सम्बन्धी आत्मा यदि लोष्ट के समान क्रियावान् है, तो लोष्ट के समान ही स्पर्शवान् होना चाहिए। अब वादी यदि आत्मा को पत्थर के समान स्पर्शवान् नहीं मानता है, तब तो वह आत्मा उसी प्रकार क्रियावान् भी नहीं हो सकेगा। ऐसी दशा में भी यदि वादी आत्मा को क्रियावान् तो स्वीकार करे परन्तु स्पर्शवान् स्वीकार नहीं करे तो इस विपरीत मार्ग के अवलम्ब लेने वाले उस वादी को कोई विशेष हेतु कहना चाहिए। फिर यह अपकर्षसमा जाति क्या है? ऐसी जिज्ञासा होने पर आचार्य कहते हैं - साधने योग्य साध्यविशिष्ट धर्मी में दृष्टान्त की सामर्थ्य से अविद्यमान धर्म के अभाव को कहने वाला प्रतिवादी अपकर्षसमा नाम की जाति को कह रहा है। जैसे उसी प्रसिद्ध अनुमान में आत्मा का क्रियासहितपना वादी द्वारा सिद्ध करने पर दूसरा प्रतिवादी प्रत्यवस्थान उठाता है कि क्रिया का आश्रय पत्थर अव्यापक (अविभु) देखा गया है। उसी प्रकार आत्मा भी तुम्हारे मनोनुकूल अव्यापक हो जायेगा। यदि तुमको विपरीत पक्ष अभीष्ट है, अर्थात् पत्थर दृष्टान्त की सामर्थ्य से आत्मा में अकेली क्रिया तो मानी जाए, किन्तु अव्यापकपना नहीं माना जाए, इसमें विशेषता को करने वाला कोई हेतु कहना चाहिए। विशेषक हेतु के नहीं कहने पर आत्मा का अव्यापकपना मिट नहीं सकेगा।।३४२-३४३ // .. परार्थानुमान में वादी द्वारा समीचीन या असमीचीन हेतु के द्वारा क्रियावान जीव के साधने का प्रयोग प्राप्त होने पर जो प्रतिवादी साध्य धर्मी में धर्म के अभाव को दृष्टान्त से प्रसंग कर कह रहा है, वह अपकर्ष समाजाति को कहता है। जैसे लोष्ट क्रियावान् है, इसलिए अव्यापक है, उसी के समान आत्मा भी सर्वदा असर्वगत होगा। अथवा विपरीत मानने पर कोई विशेषता को करने वाला कारण बतलाना पड़ेगा जिससे कि पत्थर का एक धर्म तो आत्मा में मिलता रहे, और (पत्थर का) दूसरा (धर्म) आत्मा में नहीं ठहर सके। . अब वर्ण्यसम और अवर्ण्यसम प्रतिषेध कौन है? ऐसी जिज्ञासा होने पर इन दो प्रतिषेधों (जाति) को आचार्य कहते हैं -