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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 282 ख्यापनीयो मतो वर्ण्य: स्यादवर्यो विपर्ययात्। तत्समा साध्यदृष्टांतधर्मयोरत्र साधने॥३४४॥ विपर्यासनतो जातिर्विज्ञेया तद्विलक्षणा / भिन्नलक्षणतायोगात्कथंचित्पूर्वजातिवत् // 345 // ख्यापनीयो वर्ण्यस्तद्विपर्ययादंख्यापनीयः पुनरवर्ण्यस्तेन वयेनावण्येन च समा जातिर्वर्ण्यसमावर्ण्यसमा च विज्ञेया। अत्रैव साधने साध्यदृष्टांतधर्मयोर्विपर्यासनात्। उत्कर्षापकर्षसमाभ्यां कुतोनयोर्भेद इति चेत्, लक्षणभेदात् / तथाहि-अविद्यमानधर्मव्यापक उत्कर्षः विद्यमानधर्मापनयोऽकर्षः। वर्ण्यस्तु साध्योऽवोऽसाध्य इति, तत्प्रयोगाजातयो विभिन्नलक्षणा: साधर्म्यवैधर्म्यसमवत् // चतुरंगवाद में कथन करने योग्य को वर्ण्य कहा जाता है और ख्यापनीय के विपर्यय से जो अवर्णनीय धर्म है, वह अवर्ण्य माना जाता है। जैसे कि यहाँ अनुमान में जीव का क्रियासहितपना साधने पर साध्य और दृष्टान्त के धर्मों का विपर्यास कर देने से उस वर्ण्य के और अवर्ण्य के सम यानी प्रतिषेध को प्राप्त हो रही वर्ण्यसमा और अवर्ण्यसमा जाति समझनी चाहिए। ये दोनों जातियाँ उस उत्कर्षसमा और अपकर्षसमा से विभिन्न विलक्षण हैं। क्योंकि कथंचित् भिन्न-भिन्न लक्षणों का सम्बन्ध हो जाने से पूर्व की साध्यसमा वैधर्म्यसमा जातियाँ इन उत्कर्षसमा, अपकर्षसमा से विभिन्न हैं॥३४४-३४५॥ ख्यापनीय को वर्ण्य कहते हैं और उसके विपरीत होने से अख्यापनीय अवर्ण्य कहा गया है। उस वर्ण्य और अवर्ण्य के द्वारा जो समीकरण करने के लिए प्रयोग है, वह वर्ण्यसमा और अवर्ण्यसमा जाति जान लेनी चाहिए। यहाँ आत्मा क्रियावान् है, ऐसा साधन करने पर साध्य और दृष्टान्त के धर्म के विपरीत उक्त जातियाँ हो जाती हैं। इन जातियों का पहिले उत्कर्षसमा और अपकर्षसमा से भेद किस कारण से है? इस प्रकार पूछने पर नैयायिक उत्तर देते हैं कि लक्षणों का भेद होने से इनमें भेद प्रसिद्ध है। जैसे, पक्ष में अविद्यमान धर्म को पक्ष में व्याप्त करने का प्रसंग देना उत्कर्ष है। और विद्यमान धर्म का पक्ष में से अलग कर देना अपकर्ष है। किन्तु वर्ण्य साधने योग्य होता है और अवर्ण्य असाध्य है। अर्थात् दृष्टान्त में संदिग्धसाध्य सहितपने का आपादन करना वर्ण्यसमा है। और पक्ष में असंदिग्ध साध्यसहितपने का प्रसंग देना अवर्ण्यसमा है। इस प्रकार इनमें अंतर है। उन भिन्न लक्षणों का प्रकृष्ट सम्बन्ध हो जाने से जातियाँ भी भिन्न-भिन्न अनेक लक्षणों की धारक हुई साधर्म्यसम और वैधर्म्यसम के समान पृथक्-पृथक् मानी जाती हैं! साधन धर्म से युक्त दृष्टान्त में धर्मान्तर के विकल्प से साध्यधर्म के विकल्प का प्रसंग देना विद्वानों ने विकल्पसमा जाति कही है। उसका दृष्टान्त-क्रियाहेतु गुणों से युक्त कोई एक गुरु (भारी) पदार्थ देखा जाता है, जैसे पत्थर तथा क्रियाहेतु गुण के आश्रय कोई-कोई पदार्थ गुरु नहीं देखा जाता है, अपितु लघु (हल्का) देखा जाता है जैसे वायु, उसी के समान कोई पदार्थ क्रियाहेतुगुणाश्रय होने से क्रियावान हो जायेंगे, जैसे कि लोष्ट आदि हैं। और कोई क्रियाहेतुगुणाश्रय होते हुए भी क्रियारहित बन जायेगा, जैसे कि आत्मा। यह युक्त प्रतीत होता है। यदि इसमें कोई विशेषता है तो उस विशेष हेतु का निवेदन करना चाहिए। अन्यथा उसकी बात नहीं मानी जा सकेगी।
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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